बुजुर्ग मां के लिए दयालु बना सुप्रीम कोर्ट, बीमारी छिपाकर पॉलिसी लेने के मामले में रिकवरी पर लगाई रोक

कभी-कभी कुछ ऐसे मामले आते हैं जिन पर अदालतों को भी इंसानियत का रुख अपनाना पड़ता है। देश की शीर्ष अदालत में भी एक ऐसा ही मामला आया जिस पर जजों ने सुबूतों के आधार पर फैसला सुनाने के साथ ही मानवीयता भी दिखाई। पढ़ें यह दिलचस्‍प रिपोर्ट...

By Krishna Bihari SinghEdited By: Publish:Fri, 23 Oct 2020 08:26 PM (IST) Updated:Fri, 23 Oct 2020 08:26 PM (IST)
बुजुर्ग मां के लिए दयालु बना सुप्रीम कोर्ट, बीमारी छिपाकर पॉलिसी लेने के मामले में रिकवरी पर लगाई रोक
देश की शीर्ष अदालत में भी एक ऐसा ही मामला आया जिस पर जजों ने मानवीयता दिखाई।

नई दिल्ली, पीटीआइ। अदालतों के फैसले साक्ष्यों पर आधारित होते हैं। फिर भी कभी-कभी कुछ ऐसे मामले आते हैं, जिन पर अदालतों को भी इंसानियत का रुख अपनाना पड़ता है। देश की शीर्ष अदालत में भी एक ऐसा ही मामला आया, जिस पर जजों ने सुबूतों के आधार पर फैसला सुनाने के साथ ही मानवीयता भी दिखाई। मामला बीमारी छिपाकर बीमा पॉलिसी लेने का था।

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने कहा कि बीमा के लिए अनुबंध बेहद भरोसे पर आधारित होता है। इसलिए बीमा कराने वाले व्यक्ति के लिए मांगी गई जानकारी देना जरूरी है। पीठ राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत के फैसले के खिलाफ बीमा कंपनी की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

पीठ ने कहा कि बीमा लेते वक्त मांगी गई जानकारी देना जरूरी है। उसी के आधार पर बीमा कंपनी जोखिम का आकलन करती है। अदालत ने कहा, 'इस मामले में हमारा मानना है कि राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत का फैसला कानून के मुताबिक सही नहीं है, इसलिए उसे रद किया जाता है।' बीमा कंपनी के वकील ने अदालत को बताया कि मामले के लंबित रहने के दौरान बीमे की पूरी रकम का भुगतान कर दिया गया है।

इस पर पीठ ने कहा, प्रतिवादी (मृतक की मां) की उम्र, जो 70 साल की हैं और बीमा धारक पर ही निर्भर थीं, को देखते हुए यह अदालत संविधान के अनुच्छेद 142 में प्रदत्त अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए भुगतान की गई रकम की रिकवरी नहीं करने का निर्देश देती है।

मामले के मुताबिक एक व्यक्ति ने अगस्त, 2014 में बीमा पॉलिसी ली थी। बीमा लेते समय उसने बताया था कि उसे पहले से कोई बीमारी नहीं है और न ही किसी गंभीर बीमारी का हाल फिलहाल इलाज हुआ है। लेकिन एक महीने बाद ही सितंबर, 2014 में उसकी मौत हो गई। बीमा धारक की मां ने बीमे की रकम के लिए क्लेम किया, जिसे बीमा कंपनी ने खारिज कर दिया।

बीमा धारक की मां ने उपभोक्ता अदालत में अपील की। उपभोक्ता अदालत ने बीमा कंपनी को दावे का भुगतान करने को कहा। राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत ने भी बीमा कंपनी की याचिका खारिज कर दी। आखिर में बीमा कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान बीमा कंपनी की तरफ से बताया गया कि मामले की जांच में उसने पाया था कि बीमा धारक ने अपनी बीमारी की बात छिपाई थी। बीमा लेने से एक महीने पहले ही उसे खून की उल्टियां हुई थीं और उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उसे शराब पीने की लत थी। वह हेपेटाइटिस सी से ग्रसित था, लेकिन इन सारी बातों की उसने जानकारी नहीं दी थी। इसी के आधार पर बीमा कंपनी ने बीमे की रकम का भुगतान करने से इन्कार कर दिया था।

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