सेक्युलरवाद और भारतीयता की धारणा, भारतीय संस्कृति के प्रति गौरवबोध

एक राष्ट्र के रूप भारत हिंदू संस्कृति से रचा बसा है और सेक्युलरवाद की ओट लेकर इसे अलग नहीं किया जा सकता। जबकि सेक्युलरवाद को ‘गैर-हिंदू’ भारतीय मानस तैयार करने की परियोजना के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 23 Oct 2021 01:01 PM (IST) Updated:Sat, 23 Oct 2021 01:01 PM (IST)
सेक्युलरवाद और भारतीयता की धारणा, भारतीय संस्कृति के प्रति गौरवबोध
एक राष्ट्र के रूप भारत हिंदू संस्कृति से रचा बसा है। प्रतीकात्मक

सन्नी कुमार। किसी भी विचार को आलोचनातीत मान लेने की जिद का परिणाम यह होता है कि हम उसकी बुराइयों को झेलने के लिए तो अभिशप्त होते ही हैं, उसकी अच्छाइयों से भी वंचित रह जाते हैं। यह बात भारत में सेक्युलरवाद के विचार और उसको अपनाने के तौर तरीकों पर बिल्कुल फिट बैठती है। हाल ही में इसका एक और उदाहरण देखने को मिला जब एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान ने अपने दिवाली अभियान को ‘जश्न-ए-रिवाज’ का नाम दिया। हालांकि विरोध के बाद इसे वापस ले लिया गया और स्पष्टीकरण भी जारी किया गया कि यह दिवाली को लक्षित नहीं था। इस स्पष्टीकरण की सच्चाई को समझ पाना मुश्किल नहीं है और फिर एक तबका तो यह भी कहने लगा कि आखिर दिवाली को ‘जश्न-ए-रिवाज’ कहने में क्या दिक्कत है? यह वही तबका है जो सेक्युलरवाद के नाम पर एक सांस्कृतिक प्रतीक को तटस्थ करना चाहता है और दूसरे को बनाए रखना चाहता है।

वस्तुत: हमने सेक्युलरवाद को अपनाया तो राजनीति और धर्म के पार्थक्य के लिए था, किंतु यह धीरे-धीरे धर्म की राजनीति का हथियार बन गया। यह बात अजीब लग सकती है, किंतु सच यही है। आखिर अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम वोटबैंक की गोलबंदी इसी विचार के इर्द-गिर्द हुई। इतना ही नहीं, सेक्युलरवाद को लेकर जिस तरह की बौद्धिक धारणाएं निर्मित हुईं उसमें एक तरफ तो अल्पसंख्यकों के नितांत धार्मिक मसलों को राज्य के संरक्षण से सुरक्षित किया गया तो दूसरी तरफ बहुसंख्यक जनता से न केवल धार्मिक रूप से तटस्थ रहने की अपेक्षा की गई, बल्कि उनके जीवन से धर्म का महत्व कम करने की भी कोशिश की गई।

यह अनायास नहीं है कि हिंदू संस्कृति के हर प्रतीकों को सेक्युलरवाद के विरुद्ध देखने की चेष्टा की गई तथा इनके आचारों-विचारों को पोंगापंथी का नाम देकर उपहास उड़ाया गया। दूसरी तरफ इन्हीं प्रतिमानों पर अल्पसंख्यक विशेषत: इस्लाम को अपने धार्मिक अस्मिता को मजबूत करने के लिए प्रोत्साहित किया गया और ऐसे हर प्रोत्साहन को सेक्युलरवाद के आवरण से ढंका गया। परिणामत: लोकतांत्रिक उदारवादी व्यवस्था में सेक्युलरवाद का उपयोग धर्म का राजनीति से अलगाव के रूप में कम तथा राष्ट्रीय अस्मिता को बहुसंख्यक सांस्कृतिक निरंतरता से अलगाने में अधिक हुआ।

ऐसा नहीं है कि सेक्युलरवाद की विसंगतियों पर बौद्धिक काम नहीं हुआ है, किंतु इस पक्ष पर अपेक्षाकृत कम बात की गई है कि सेक्युलरवाद के माध्यम से किस प्रकार एक ऐसे भारतीय मानस के निर्माण का प्रयास किया जा रहा है जो अपनी विरासत से कटी हो और जिसकी ऐतिहासिक निरंतरता एक खास काल के बाद शुरू होती हो।

बहरहाल विद्वानों का एक वर्ग सेक्युलरवाद की विफलता को इस रूप में रेखांकित करता है कि एकदम शुरुआत में ही बहुसंख्यक जनता के धार्मिक मसले में राज्य ने व्यापक हस्तक्षेप किया तथा सामाजिक सुधार संबंधी नियम बनाए और इसके विपरीत अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा गया। परिणामस्वरूप उदारतावादी लोकतंत्र के सार्वभौम नागरिकता की अवधारणा कमजोर हुई और देश के भीतर गंभीर रूप से धार्मिक असंतुलन बढ़ने लगा। ऐसा होना स्वाभाविक था, क्योंकि बहुसंख्यक धर्म को राज्य की आधुनिकता की परियोजना का हिस्सा बना लिया गया और अल्पसंख्यक की धार्मिकता को विविधता के नाम पर संरक्षित किया गया। इसी प्रकार सेक्युलरवाद की विफलता पर यह भी कहा जाता है कि धार्मिक सहिष्णुता का इस्तेमाल किए बिना सामाजिक सहिष्णुता कायम करने की सेक्युलर कोशिश का असफल होना स्वाभाविक ही है। मजेदार बात है कि विद्वान सेक्युलरवाद की विफलता पर बात करते हुए भी इस पहलू पर मौन ही रहे हैं कि इसने कैसे भारतीय मानस को दूषित करने का कार्य किया है। इसे कुछ और उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं।

सेक्युलरवाद किस तरह हिंदू प्रतीकों से घृणा के रूप में उभरा है, यह रोजमर्रा के अनुभव का विषय हो गया है। योग से बेहतर उदाहरण क्या होगा कि जिसे पूरा विश्व स्वस्थ जीवन शैली के लिए अपना रहा है, उसका भारतीय सेक्युलर विद्वान इस आधार पर विरोध कर रहे हैं कि योग हिंदू परंपरा से जुड़ी धारणा है। यह अनायास नहीं है कि पर्यावरण संरक्षण की सारी चिंता दीपावली तक आकर सिमट जाती है और तमाम हिंदू त्योहारों को आर्थिक अपव्यय के प्रतीक के रूप में पेश किया जाता है। आश्चर्य है कि ये तमाम मानक दूसरी तरफ प्रयोग में नहीं लाए जाते हैं। यह भारतीय सेक्युलरवाद का ही करिश्मा है वह दारा शिकोह को किनारे कर औरंगजेब की परंपरा का महिमामंडन और उसके धार्मिक उन्माद को राजनीति की आड़ में नैतिक साबित करने की कोशिश करता है। इतना ही नहीं, राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम’ को गाने से भी इसलिए इन्कार कर दिया जाता है, क्योंकि इसमें हिंदू भाव है और राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होने को भी हिंदूवादी भावना के नजरिये से देखा जाता है।

ये उदाहरण साफ तौर पर इंगित करते हैं कि कैसे सेक्युलरवाद का इस्तेमाल सार्वजनिक जीवन से हिंदू प्रतीकों को शिथिल करने के लिए किया जा रहा है। यानी सेक्युलर होने की अनिवार्य शर्त यह मान ली गई है कि वह हिंदू परंपरा से मुक्त हो। इस प्रकार जिस सेक्युलर समाज को रचने की कोशिश की जा रही है वह कुछ भी हो सकता है, परंतु भारतीय समाज नहीं हो सकता।

[अध्येता, इतिहास]

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