Rabindranath Tagore Death Anniversary: प्रयागराज में भी समृद्ध हुआ गुरुदेव का रचना संसार
Rabindranath Tagore Death Anniversary नोबेल सम्मान पाने वाली गुरुदेव की कालजयी कृति गीतांजलि शहर के इंडियन प्रेस में हुई थी मुद्रित।
शरद द्विवेदी, प्रयागराज। गुलामी के दौरान सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का प्रयागराज (पूर्ववर्ती इलाहाबाद) से आत्मीय नाता रहा। लगभग छह प्रवास हुए थे उनके इस शहर में। वह यहां अपनी रचनाओं के लिए ‘शब्द’ पाते थे। 1900 में पहली बार आए थे और तब ‘शाहजहां’ शीर्षक वाली कविता लिखी थी। 1914 में यहीं ‘गीताली’ नामक पुस्तक लिखी, यह उनका आखिरी प्रवास था। नोबेल सम्मान पाने वाली गुरुदेव की कालजयी कृति गीतांजलि शहर के इंडियन प्रेस में मुद्रित हुई थी।
पहले प्रवास में गुरुदेव इलाहाबाद हाई कोर्ट के पास स्थित होटल कैरेंडिस में कई दिनों तक रुके थे। केपी कालेज के पहले प्रधानाचार्य रामानंद चट्टोपाध्याय से उनकी मित्रता थी। रामानंद ने बांग्ला भाषा में ‘प्रवासी’ नाम से पत्रिका शुरू की थी। गुरुदेव ने 1901 में इसी पत्रिका के लिए ‘प्रवासी’ शीर्षक से कविता लिखी। उनका ‘गोरा’ नामक उपन्यास प्रवासी में कई किस्तों में प्रकाशित हुआ।
रामानंद ने 1907 में अंग्रेजी पत्रिका ‘मार्डन रिव्यू’ का प्रकाशन शुरू किया। गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद मार्डन रिव्यू में छपा। आमतौर पर गुरुदेव, टैगोर टाउन स्थित प्यारेमोहन बनर्जी के आवास में रुकते थे। एक बार वह 15 दिनों तक ठहरे। यहीं उन्होंने गीतांजलि की कुछ पंक्तियां लिखीं। साहित्यिक चिंतक प्रो. एमसी चट्टोपाध्याय के अनुसार गुरुदेव 1908 में जब शहर आए तो बौद्धिक जगत से जुड़े लोगों ने उनका अभिनंदन किया था। गुरुदेव को भी यहां से बेहद लगाव था।
इंडियन प्रेस ने छापी थीं कई किताबें : इंडियन प्रेस में गुरुदेव की बहुत सी किताबें प्रकाशित हुईं। यह क्रम 1908 से 1923 तक चला। गीतांजलि, घर और बाहर, काबुलीवाला, डाकघर, गोरा, चित्त जेथा भयशून्य, दुई बीघा जोमी, बीरपुरुष, वोकेशन जैसी रचनाएं यहीं छपीं। ‘शिशु भोलानाथ’ नामक उपन्यास यहां से मुद्रित होने वाली उनकी आखिरी कृति थी।
बाबू चिंतामणि घोष से आत्मीय संबंध : गुरुदेव के इंडियन प्रेस के मालिक बाबू चिंतामणि घोष से आत्मीय संबंध थे। प्रेस के मौजूदा निदेशक कल्याण कुमार घोष बताते हैं कि 1914 में हुए प्रवास में गुरुदेव ने गीताली नामक किताब लिखी। सात दिन में छापने की गुजारिश की, पर चार दिन में ही छाप कर यह उन्हें दी गई तो वह काफी खुश हुए। घर आए तो बाबू चिंतामणि घोष ने उन्हें पियानो पर गीत भी सुनाया।