रमन ने महज 11 वर्ष की आयु में ही पास की थी मैट्रिक परीक्षा, देश का बढ़ाया मान

महान भारतीय वैज्ञानिक सी वी रमन ने पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए भारत को वैज्ञानिक दृष्टि से मजबूत बनाने में अपना सफल योगदान दिया।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 21 Nov 2018 11:07 AM (IST) Updated:Wed, 21 Nov 2018 11:21 AM (IST)
रमन ने महज 11 वर्ष की आयु में ही पास की थी मैट्रिक परीक्षा, देश का बढ़ाया मान
रमन ने महज 11 वर्ष की आयु में ही पास की थी मैट्रिक परीक्षा, देश का बढ़ाया मान

नई दिल्ली, स्पेशल डेस्क। विज्ञान की दृष्टि से प्राचीनतम भारत ने कई उपलब्धियां हासिल की है। जैसे शून्य और दशमलव प्रणाली की खोज, पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने की खोज तथा आयुर्वेद के फॉर्मुले आदि लेकिन दुर्भाग्यवश इन सब खोजों के बावजूद भी भारत में पूर्णरूप से विज्ञान के प्रयोगात्मक कोण में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी, ऐसे में महान भारतीय वैज्ञानिक सी वी रमन ने पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए भारत को वैज्ञानिक दृष्टि से मजबूत बनाने में अपना सफल योगदान दिया।

डा. सी वी रमन की आज पुण्यतिथि है। देशवासी उनके वैज्ञानिक शोध और युवाओं में विज्ञान के प्रति लगाव पैदा करने के लिए याद करते हैं। देश के ज्यादातर लोग उन्हें भौतकी के नोबेल पुरस्कार विजेता के रूप में जानते है। लेकिन शोध करने और नोबल पुरस्कार जीतने से पहले डा. रमन सरकारी नौकरी करके अपनी शादीशुदा जिंदगी गुजार रहे थे। वर्ष 1906 में एम. ए. की परिक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें वित्त विभाग के जनरल एकाउंटेंट के पद पर नौकरी मिल गई। सरकारी नौकरी में इतना ऊंचा पद पाने वाले रमन पहले भारतीय थे। हालांकि उन्हें यह नौकरी ज्यादा समय तक रास न आई। इनके पिता चन्द्रशेखर अय्यर एस. पी. जी. कॉलेज में भौतिकी के प्राध्यापक थे और माता पार्वती अम्मल एक सुसंस्कृत परिवार की महिला थीं।

रमन बचपन से तीव्र बुद्धि के थे, उन्होंने 11 साल की उम्र में मैट्रिक पास कर ली थी, इतना ही नहीं सीवी रमन ने तत्कालीन एफए परीक्षा स्कोलरशिप के साथ 13 कि उम्र में पूरी की थी, जो कि आज की इंटरमीडिएट के बराबर होती है। रमन ने रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे इनके हृदय पर भारतीय गौरव की अमिट छाप पड़ गई। इनके पिता उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने के पक्ष में थे; किंतु एक ब्रिटिश डॉक्टर ने आपके स्वास्थ्य को देखते हुए विदेश न भेजने का परामर्श दिया। फलत: इनको स्वदेश में ही अध्ययन करना पड़ा।

रमन ने 1902 में मद्रास का प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया, जहां उनके पिता प्रोफेसर थे। डा. सीवी रमन एक लड़की की आवाज से इतना प्रभावित हो गये कि उन्होंने अगले दिन उन्होंने उस लड़की के माता-पिता से मुलाकात की और विवाह की इच्छा जताई। उस लड़की का नाम लोकसुंदरी था। लोकसुंदरी के माता-पिता उसका विवाह रमन के साथ करने के लिए तैयार हो गए।

सन 1917 में सीवी रमन ने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र देकर कलकत्ता के एक नए साइंस कॉलेज में भौतिक विज्ञान का अध्यापक बन गए। दरअसल यहां उनके पास भौतिकी से जुड़े रहने का मौका था। भौतिकी के प्रति उनके इसी जुड़ाव उन्हें भौतिकी के क्षेत्र में सम्मान दिलाया। डा. रमन ने अपने शोध कार्य को आगे बढ़ाया और उन्हें सफलता भी मिली। सन 1922 में C V Raman ने ‘प्रकाश का आणविक विकिरण’ नामक मोनोग्राफ का प्रकाशन कराया। उन्होंने प्रकाश के प्रकीर्णन की जांच के लिए प्रकाश के रंगो में आने वाले परिवर्तनों का निरिक्षण किया।

सन 1930 में सीवी रमन को ‘नोबेल पुरस्कार’ के लिए चुना गया। रुसी वैज्ञानिक चर्ल्सन, यूजीन लाक, रदरफोर्ड, नील्स बोअर, चार्ल्स कैबी और विल्सन जैसे वैज्ञानिकों ने नोबेल पुरस्कार के लिए रमन के नाम को प्रस्तावित किया था।

1954 में भारत सरकार की ओर से उन्हें भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया और वर्ष 1957 में लेनिन शांति पुरस्कार प्रदान किया था। भारत सरकार की ओर से सन 1952 में उनके पास भारत का उपराष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव आया। इस पद के लिए सभी राजनितिक दलों ने उनके नाम का समर्थन किया था। ऐसे में उनका निर्विरोध उपराष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय था। लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और विज्ञान की दिशा में अपना कार्य जारी रखा।

डा. सीवी रमन की मृत्यु 21 नवंबर 1970 को हो गई थी। लेकिन युवाओं में विज्ञान के प्रति ललक जगा गये डा. रमन आज हर युवा में महसूस किये जा सकते हैं। आज उनकी मौजूदगी नहीं है, लेकिन अपने शोध कार्य ‘रमन प्रभाव’ की वजह से युवाओं के दिलों में मौजूद हैं। 

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