अफगानिस्तान से भारत को दूर करने के प्रयास में पाकिस्तान स्वयं बारूद के ढेर पर खड़ा

बीते कुछ कुछ वर्षो में इसने पाकिस्तान के भीतर 32 से ज्यादा घातक आतंकी हमलों को अंजाम दिया है। लिहाजा अफगानिस्तान तो फिलहाल अशांत है ही पाकिस्तान भी उसके रूप में अपने लिए बारूद जमा कर रहा है जो उसी के लिए घातक होगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 06 Aug 2021 08:59 AM (IST) Updated:Fri, 06 Aug 2021 09:00 AM (IST)
अफगानिस्तान से भारत को दूर करने के प्रयास में पाकिस्तान स्वयं बारूद के ढेर पर खड़ा
अफगानिस्तान में भारतीय हितों को आघात पहुंचाने के लिए अपने ही अहित पर आमादा पाकिस्तान। इंटरनेट मीडिया

सतीश कुमार। अफगानिस्तान एक जमाने में भारत का ही अभिन्न अंग था। बाद में औपनिवेशिक शक्तियों ने भारतीय उपमहाद्वीप को अशांत और प्रभावित करने की कोशिश शुरू कर दी। सबसे पहले धर्म को हथियार बनाया। हिंदू-मुसलमान का बटवारा किया। क्षेत्रीय विषमताओं को विघटनकारी तत्वों में तब्दील करने की योजना बताई गई। लेकिन भारत इन तमाम विसंगतियों से स्वयं को निकालने में सफल रहा। भारत निरंतर कोशिश में है कि उन देशों में शांति व्यवस्था बनी रहे। अफगानिस्तान में भारत के ज्यादातर प्रोजेक्ट विकास की धुरी से जुड़े हुए हैं। तकरीबन तीन अरब डालर के साथ भारत ने पिछले 20 वर्षो में स्कूल, कालेज, अस्पताल, हाइवे और तकनीकी जरूरतों को पूरा करने का काम किया है।

भारत की कोशिश रही है कि अफगानिस्तान में समाज निर्माण बाहरी ताकतों के दबाव में नहीं, बल्कि उनके द्वारा स्वाभाविक रूप से बनाया जाए। कभी रूस और कभी अमेरिका तो कभी अन्य देश अपने निहित स्वार्थ के जरिये कैसे किसी देश में युद्ध की स्थिति पैदा कर देते हैं, अफगानिस्तान इसका ज्वलंत उदाहरण है। बांग्लादेश एक अलग उदाहरण है। हालांकि हिंसा और आतंक का दौर लोगों की सोच से बदलना शुरू हुआ। आज बांग्लादेश दक्षिण एशिया के अन्य देशों से ज्यादा रफ्तार से प्रगति कर रहा है। पाकिस्तान की नियति डूबने की है। उसका उन्माद अशांति और खून खराबे में अटका हुआ है। यही करण है कि पाकिस्तान में आतंकवाद की जितनी घटनाएं होती हैं, उतनी कहीं और नहीं होती। उसका नुकसान भी उसे ही ङोलना पड़ता है। वहीं सच्चाई यह है कि तालिबान की जीत को पाकिस्तान विजय के रूप में देखा जा रहा है। ऐसा देखने का कारण भी है। तालिबान को पोषित और संचालित करने का काम पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आइएसआइ के इशारे पर हुआ है। यहां तक 2020 का ‘दोहा पीस डील’ भी पाकिस्तान के कारण सफल हुआ।

दरअसल ‘दोहा समझौते’ को एक समझौता नहीं, बल्कि एक डील कहा जा सकता है, जिसमें अमेरिका द्वारा एकतरफा समर्पण किया गया और तालिबानियों की हर जिद की जीत हुई। चीन की बढ़ती गिरफ्त से पाकिस्तान का वजूद और मजबूत बनता गया। तुर्की, ईरान और रूस भी अमेरिकी वापसी से खुश हैं। यानी हर तरफ से पाकिस्तानी रणनीति कामयाब साबित होती दिख रही है। लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। भौगोलिक-राजनीतिक संघर्ष की भीतरी परत को अगर गंभीरता से देखा जाए तो सबसे बेहतर स्थिति पाकिस्तान की दिख रही है। ऐसा होने का पुख्ता कारण और सबूत भी है। अल्पावधि में भले ही पाकिस्तान की यह जीत कही जाए, लेकिन दीर्घावधि में पाकिस्तान की बेचैनी स्पष्ट रूप से नजर आ रही है।

पाकिस्तान और अफगानिस्तान का इतिहास भी बहुत पेचीदा है। दोनो देशों के बीच की सीमा को ‘डूरंड लाइन’ कहा जाता है, लेकिन उसकी मान्यता अफगानिस्तान की किसी भी हुकूमत ने नहीं दी है। वर्ष 1893 में तैयार की गई इस रेखा का दर्द आज भी अफगानिस्तान में बखूबी जिंदा है। सौ वर्षो के बाद यानी 1993 में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पश्तूनों ने आंदोलन शुरू किया था कि पाकिस्तान का वृहत क्षेत्र ‘पख्तूनख्वा’ की अफगानिस्तान में विलय की इजाजत दे दी जाए। यह क्षेत्र पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का 60 प्रतिशत हिस्सा है। अगर यह क्षेत्र पाकिस्तान से अलग बन गया तो पाकिस्तान का करीब दो तिहाई हिस्सा हाथ से निकल जाएगा।

पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक में पाकिस्तान व अफगानिस्तान के बीच युद्ध जैसे हालात थे। शीत युद्ध के समीकरण ने पाकिस्तान को दोहरे आघात से बचा लिया था। जिस समय पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश के रूप में एक अलग देश बन गया था, ठीक उसी दौरान पश्तूनिस्तान के भी अलग होने की स्थिति पैदा हो गई थी। जुल्फिकार अली भुट्टो ने बचने के लिए जिस तरह से इस्लामिक कार्ड खेलना शुरू किया था, वहीं से अफगानिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथ की शुरुआत हुई। अफगानिस्तान मीडिया को पढ़ें और देखें तो उसमें भी पाकिस्तान का विरोध ही दिखता है। वहां के लोग आतंकवाद और खून खराबे के लिए पाकिस्तान को दोषी मानते हैं। दरअसल अफगानिस्तान का स्वरूप एक जनजातीय राज्य के रूप में है, जिसमें पश्तून सबसे बड़ा समुदाय है। लेकिन उसके अलावा ताजिक, हजारा और दर्जनों अलग अलग समुदाय के लोग भी हैं। भाषा और रहन-सहन भी एक दूसरे से भिन्न है।

तालिबान केवल पश्तून की पहचान के साथ अफगानिस्तान को नियंत्रित नहीं कर सकता। शिया मुसलमानों की एक अलग हुजूम है जिसकी सीमा इरान से मिलती है। अन्य जनजातियां तालिबान के साथ पाक विरोधी भी हैं। चीन और रूस इस्लामिक आतंकवाद से पीड़ित हैं। अफगानिस्तान की शांति दोनों के लिए अहम है। लेकिन पाकिस्तान के समीकरण के तहत गृह युद्ध की आशंका ज्यादा मुखर है। अफगान-पाक सीमा पर मादक पदार्थो की तस्करी का अड्डा है। पूरे इलाके में गरीबी-बेरोजगारी है। अफगानिस्तान में आíथक संसाधन का मुख्य आधार अमेरिकी अनुदान था, जो अब संभव नहीं। पाकिस्तान की स्थिति भी बदतर है। चीन केवल अपने व्यापार और सामरिक समीकरण के कारण जुड़ा हुआ है। अर्थात हर तरीके से नुकसान पाकिस्तान को ही होगा।

इस बीच मध्य एशिया के भीतर अगर अफगानिस्तान के कारण अशांति फैलती है तो रूस का तेवर उग्र होगा। ऐसे में चीन भी शांत नहीं रह सकता है। स्वाभाविक है कि दहशतगर्दो की जमात से शांति और विकास की बात नहीं बन सकती। अफगानिस्तान से भारत को दूर करने के प्रयास में पाकिस्तान स्वयं बारूद के ढेर पर खड़ा होता जा रहा है। ऐसे में आज नहीं तो कल विस्फोट होना सुनिश्चित है।

[प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, इग्नू, नई दिल्ली]

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