एक देश एक चुनाव की राह में कम नहीं हैं अड़चनें, लेकिन लग सकती है चुनावी विसंगतियों पर लगाम

भारत में राजनीति स्‍तर पर मौजूद ढांचा और विभिन्‍न राज्‍यों की अपनी परेशानियां एक देश एक चुनाव को लागू करने में बाधक हैं। हालांकि यदि ये लागू हो जाता है तो इससे चुनावी प्रक्रिया में मौजूद खामियों को दूर किया जा सकता है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Wed, 02 Dec 2020 11:50 AM (IST) Updated:Wed, 02 Dec 2020 11:50 AM (IST)
एक देश एक चुनाव की राह में कम नहीं हैं अड़चनें, लेकिन लग सकती है चुनावी विसंगतियों पर लगाम
बार बार चुनाव में काफी समय और धन लगता है

मोहम्मद शहजाद। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ न होने से सरकारों, नेताओं और जनता के बहुमूल्य समय के साथ-साथ अकूत धन का क्षरण होता है। साथ ही बार-बार होने वाले चुनावों से विकास की गति भी बाधित होती है, क्योंकि हर चुनाव की घोषणा के साथ ही आचार संहिता लागू हो जाती है। नि:संदेह एक साथ चुनाव से इन तमाम विसंगतियों पर काबू पाया जा सकता है। अलबत्ता यह कहन-सुनने में जितना उचित लगता है, उतना शायद भारत जैसे संघीय और संवैधानिक ढांचे वाले मुल्क में आसान नहीं होगा।

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव फिलहाल अलग-अलग होने के बावजूद इसे शांतिपूर्वक संपन्न कराना निर्वाचन आयोग और सुरक्षा बलों के लिए बड़ी चुनौती होती है। इसमें काफी समय लगता है। मसलन 2019 के आम चुनाव सात चरणों में संपन्न हुए और इसमें 39 दिन अर्थात सवा महीने का समय लगा। इस दौरान कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए लगभग 2.7 लाख अर्धसैनिक बलों और 20 लाख पुलिस फोर्स का सहारा लेना पड़ा। हाल ही में हुए बिहार विधानसभा चुनाव 11 दिनों तक तीन फेज में हुए। यहां केंद्र ने 30 हजार अर्धसैनिक बलों को उतारने की बात कही थी। राज्य की पुलिस फोर्स का जो इस्तेमाल हुआ सो अलग। ऐसे में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव करवाने में लगने वाले समय और संसाधन का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है।

बात केवल इतनी भर नहीं है। असल में विविधता वाले हमारे देश में राजनीतिक परिस्थितियां इसके अनुकूल नहीं हैं। बहु-दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाले हमारे देश में जनता के चुनावी मुद्दे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र, एक राज्य से दूसरे राज्य और फिर राज्य से राष्ट्रीय स्तर तक अलग-अलग हैं। मुद्दों के साथ-साथ उनकी चुनावी प्राथमिकताएं भी अलग-अलग हैं। किसी राज्य में लोग अपने यहां के क्षेत्रीय दलों को पसंद करते हैं तो किसी राज्य के राष्ट्रीय दलों को तरजीह देते हैं। भू-सामाजिक और राजनीतिक विविधता से लोगों के सामने बहुत से विकल्प खुले होते हैं और जन-मानस अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही अलग-अलग प्रशासनिक स्तर पर दलों का चयन करते हैं। ऐसे में एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय दलों को काफी नुकसान होगा और उनकी संभावनाएं क्षीण होती जाएंगी, क्योंकि बदली हुई निर्वाचन प्रणाली में राष्ट्रीय मुद्दों और जनभावनाओं का प्रभुत्व होगा।

हमारे देश में वैसे ही गठबंधन सरकारों का एक लंबा दौर रहा है। कई बार किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने और फिर आपस में गठबंधन की सहमति नहीं बन पाने से त्रिशंकु जैसे हालात पैदा हो जाते हैं। एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में अगर केंद्र में किसी दल या गठबंधन की सरकार बन जाती है और किसी राज्य में त्रिशंकु परिस्थितियां उत्पन्न हो गईं तो ऐसे में हालात बड़े विचित्र हो जाएंगे। फिर यही बात केंद्र के लिए भी लागू होती है। ऐसी परिस्थितियों में क्या त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभाओं को अगले पांच वर्षो तक फिर से एक साथ चुनाव होने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी?

भारतीय संविधान में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के अपने-अपने अधिकार प्रदत्त हैं। इसके अतिरिक्त शासन का तीसरा स्तर भी है जो स्थानीय निकायों के जरिये चलता है। लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव करवाने से स्थानीय निकायों में भी इसका प्रयोग किए जाने की मांग उठने लगेगी। सबसे बड़ी दिक्कत तो संसद के उच्च सदन राज्यसभा के सामने पेश आएगी जिसके सदस्यों का कार्यकाल छह साल का होता है और इसमें से हर दो वर्ष पर एक-तिहाई सदस्यों का कार्यकाल समाप्त होता है।

(स्वतंत्र पत्रकार)

chat bot
आपका साथी