10 माह तक सही नाजियों की यातना, फिर भी नहीं किया कोई खुलासा, ऐसी थी बहादुर 'नूर'
नूर इनायत खान ने दस माह तक नाजियों की यातनाएं सहीं लेकिन कभी मुंह नहीं खोला। 30 वर्ष की उम्र में अपनी जान देने वाली भारतीय मूल की इस युवती को आज दुनिया सलाम कर रही है।
नई दिल्ली (ऑनलाइन डेस्क)। दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटेन की तरफ से मित्र देशों की जासूसी करने वानी नूर इनायत खान को लंदन में उनके पूर्व पारिवारिक घर में स्मारक ‘ब्लू प्लाक’ से सम्मानित किया गया है। वे द्वितीय विश्वयुद्ध में पहली एशियन सीक्रेट एजेंट थी। ये हर भारतीय के लिए एक अदभुत पल था क्योंकि पहली बार ये सम्मान किसी भारतीय को मिला है। नूर का अर्थ होता है उजाला। वो सचमुत उस दौर में जब नाजियों के अत्याचार से आधी दुनिया सहमी हुई थी नूर एक नए प्रकाश के तौर पर सामने आई थीं। नूर मास्को में पैदा हुई, ब्रिटेन में पली बढ़ीं और नाजियों के कब्जे वाले फ्रांस में अंतिम सांस ली। नूर अपने तीन उपनाम नोरा बेकर, मेडेलीन, जीन-मरी रेनिया के नाम से भी जानी जाती थीं। आपको बता दें कि नूर इनायत खान भारत के पूर्व मैसूर राज्य के शासक टीपू सुल्तान की वंशज थीं।
मास्को में हुआ था जन्म
नूर का पूरा नाम नूर-उन-निसा इनायत खान था। उनका जन्म 1 जनवरी 1914 को मास्को में हुआ था। उनके पिता भारतीय और मां अमेरिकी थीं। उनके पिता हजरत इनायत खान टीपू सुल्तान के पड़पोते थे। उनको सूफीवाद को पश्चिमी देशों में पहुंचाने के लिए जाना जाता है। वे एक धार्मिक शिक्षक के तौर वो कई देशों में रहे, लेकिन उनका लंबा जीवन लंदन और पेरिस में बीता था। पिता की तरह नूर की भी रूचि धर्म और आस्था से थी। नूर को संगीत का भी शौक था इसलिए उन्होने वीणा बजानी सीखी थी। प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने और नूर के जन्म के बाद उनका परिवार मॉस्को से लंदन आ गया था। यहां पर उनकी पढ़ाई शुरू हुई। इसके बाद 1920 में उनका परिवार पेरिस के सुरेसनेस में रहने लगा। 1927 में पिता के निधन के बाद पूरे घर की जिम्मेदारी उनके ही कंघों पर आ गई थी।
वीणा बजाने का था शौक
नूर ने परिवार को संभालने के लिए संगीत का माध्यम बनाया। उन्होंने सूफी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने के लिए वीणा और पियानो को एक माध्यम बनाया। फ्रेंच रेडियो को भी अपना नियमित योगदान देती थीं। भगवान बौद्ध से प्रभावित होकर उन्होंने एक किताब ट्वेंटी जातका टेल्स लिखी जो 1939 में प्रकाशित हुई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद 22 जून 1940 को वो अपने परिवार के साथ ब्रिटेन के फॉलमाउथ, कॉर्नवाल लौट आईं। इस युद्ध से उनको गहरा झटका भी लगा था और उन्होंने भारतीयों से मित्र राष्ट्रों का साथ देने की अपील भी की थी।
रॉयल एयर फोर्स से जुड़ीं नूर
19 नवंबर 1940 को नूर रॉयल एयरफोर्स में द्वितीय श्रेणी के एयरक्राफ्ट अधिकारी के रूप में शामिल हुईं। यहां पर उन्होंने वायरलेस ऑपरेटर की ट्रेनिंग पूरी की। जून 1941 में उन्होंने रॉयल एयरफोर्स बॉम्बर ट्रेनिंग स्कूल में कमिशन के सामने आर्म्ड फोर्स ऑफिसर के लिए एप्लाई किया। यहां पर उन्हें वायरलेस ऑपरेटर से प्रमोशन देकर असिसटेंट सेक्शन ऑफिसर बनाया गया। 1943, उनके जीवन में बड़ा अवसर लेकर आया। फ्रेंच भाषा पर अच्छी पकड़ होने की वजह से उन्होंने दूसरों से बाजी मारते हुए कम उम्र में एक बड़ा मुकाम हासिल किया।
जासूसी की जिम्मेदारी
नूर को फरवरी में एयर फ्रांस में स्पेशल ऑपरेशंस कार्यकारी के रूप में भर्ती किया गया। इस वक्त तक न तो उन्हें जासूसी के लिए चुना गया था न ही उन्होंने इसके बारे में सोचा ही था। लेकिन जल्द ही उनके कंधों पर इसकी जिम्मेदारी डाल दी गई और उन्हें फ्रांस में बतौर जासूस काम करने के लिए तैयार किया गया। 16-17 जून 1943 को उन्हें जासूसी के लिए रेडियो ऑपरेटर बनाकर फ्रांस भेज दिया गया। यहां पर उनका कोड नाम 'मेडेलिन' रखा गया। फ्रांस से वो अपने काम को बखूबी अंजाम देती रहीं।
फ्रांस में नाजियों की जासूसी
फ्रांस में वो फ्रांसिस सुततील के नेतृत्व में एक नर्स के रूप में शामिल हो गईं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नूर विंस्टन चर्चिल के विश्वसनीय लोगों में से एक थीं। नूर ने तीन महीने से भी अधिक समय तक फ्रांस में जासूसी की और कई गोपनीय सूचनाएं मित्र देशों को मुहैया करवाईं। 13 अक्टूबर 1943 को उन्हें पेरिस में जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। गेस्टापो के पूर्व अधिकारी हैंस किफर ने उनसे जानकारी हासिल करने की हर संभव कोशिश की, लेकिन विफल रहा। उन्हें तरह तरह की यातनाएं दी गईं।
भागने की विफल कोशिश
25 नवंबर 1943 को इनायत एसओई एजेंट जॉन रेनशॉ और लियॉन के साथ किसी तरह से भागने में सफल हो गई थीं। लेकिन यहां पर किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया और उन्हें हैडक्वार्टर से कुछ दूरी पर गिरफ्तार कर लिया गया। 27 नवंबर 1943 को नूर को पेरिस से जर्मनी के फॉर्जेम जेल भेज दिया गया। इस दौरान उन्हें यातनाएं देकर पूछताछ करने का दौर लगातार जारी रहा। लेकिन जर्मन अधिकारी को हर बार निराशा ही हाथ लगी।
अंत तक नूर की असलियत नहीं जान सके नाजी
11 सिंतबर 1944 को नूर को उनके तीन साथियों के साथ जर्मनी के डकाऊ प्रताड़ना शिविर ले जाया गया। 13 सितंबर 1944 की सुबह इन सभी के सिर में गोली मारने का आदेश सुनाया गया। पहले नूर के तीन अन्य साथियों को गोली मारी गई बाद में नूर से अंतिम बार गुप्त सूचनाओं का ब्यौरा मांगा गया। मना करने पर उनके सिर में गोली मार दी गई। जिस वक्त उनको गोली मारी गई उनके होंठों पर स्वतंत्रता का शब्द था। उसके बाद सभी को दफना दिया गया। मृत्यु के समय उनकी उम्र 30 वर्ष थी। नाजी कभी नूर का असली नाम और उसका मकसद नहीं जान पाए। नूर ने जिस बहादुरी के साथ काम किया वो आज भी सभी के लिए प्रेरणादायी है। नूर को मिलने वाला ब्लू प्लाक सम्मान निश्चिततौर पर उनकी बहादुरी को मान्यता देने वाला है।
जॉर्ज क्रॉस से सम्मानित
उनकी सेवाओं के लिए उन्हें युनाइटेड किंगडम एवं अन्य राष्ट्रमंडल देशों के सर्वोच्च नागरिक सम्मान जॉर्ज क्रॉस से सम्मानित किया गया। उनकी स्मृति में लंदन के गॉर्डन स्क्वेयर में स्मारक बनाया गया है, जो इंग्लैण्ड में किसी मुस्लिम और किसी एशियाई महिला के सम्मान में बना अपनी तरह का पहला स्मारक है। आपको बता दें कि इंग्लिश हैरिटेज धर्मार्थ संगठन द्वारा संचालित ब्लू प्लाक योजना प्रख्यात लोगों और संगठनों को सम्मानित करता है जो लंदन में किसी खास भवन से जुड़े होते हैं। उनके ऊपर श्रावनी बसु ने स्पाइ प्रिंसेस : द लाइफ ऑफ नूर इनायत खान नाम से एक किताब भी लिखी है। बसु नूर इनायत खान मेमोरियल ट्रस्ट (एनआईकेएमटी) की संस्थापक-अध्यक्ष हैं जिसने 2012 में पास के गोर्डोन स्कॉयर में नूर की प्रतिमा लगाई थी।
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