Tokyo Olympics 2020: तमाम अभावों के बीच देश में खेलों को नई दिशा दे रही हमारी बेटियां

टोक्यो में आयोजित ओलिंपिक में हमारी बेटियां किस तरह से अपने देश का नाम ऊंचा कर रही हैं इसे अब बताने की जरूरत नहीं है। तमाम अभावों के बीच हमारी बेटियों का इस मुकाम तक पहुंचना एक बड़ी उपलब्धि है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 03 Aug 2021 09:26 AM (IST) Updated:Tue, 03 Aug 2021 06:30 PM (IST)
Tokyo Olympics 2020: तमाम अभावों के बीच देश में खेलों को नई दिशा दे रही हमारी बेटियां
टोक्यो ओलिंपिक में पदक जीत कर भारत का नाम ऊंचा करने वाली बेटियां- मीराबाई चानू (बाएं) और पीवी सिंधू।

मनु त्यागी। खेल की दुनिया के सबसे बड़े महाकुंभ में बेटियों ने स्वयं को ऐसे साबित कर दिखाया मानो वो अकेले अपने लिए नहीं, बल्कि देश के सम्मान के साथ-साथ, आधी आबादी के गौरव को भी शिखर तक पहुंचाना चाहती थीं। हर घर की प्रेरणा बनना चाहती थीं। उन्होंने सचमुच कर दिखाया। ओलिंपिक ने सात दशक पहले वो दौर भी देखा जब महज चार बेटियां कोरम पूरा करने भर को गईं और आज टोक्यो ओलिंपिक में उससे 14 गुना अधिक बेटियां शामिल हैं। यह लगातार दूसरा ओलिंपिक है जब खेलों के महाकुंभ में शिरकत कर रही देश की बेटियों की संख्या पुरुष खिलाड़ियों के लगभग बराबर है। देश की चार बेटियों ने पहली बार 1952 हेलेसिंकी ओलिंपिक में दो खेलों एथलेटिक्स और तैराकी में हिस्सा लिया था। तो इस बार टोक्यो में रिकार्ड 55 बेटियां रिकार्ड 15 खेलों में चुनौती पेश कर तिरंगे की शान बढ़ा रही हैं।

हाकी की छड़ी से तो हमारी बेटियों ने इतिहास ही रच दिया। मानो पूरे मैदान में तिरंगा लहरा रहा हो। देशवासियों को तो मैदान से जीत की हुंकार भरकर अहसास कराना पड़ा कि देखो बेटियों ने फतेह हासिल कर ली है। इतिहास जिस कहानी को तरस रहा था उसे रच दिया गया है। दरअसल कप्तान रानी रामपाल की अगुवाई में खेल रही भारत की बेटियों को चुनौती देने वाली जो आस्ट्रेलिया की टीम थी वो तीन बार की ओलिंपिक चैंपियन है। हाकी खेल में डटकर डिफेंस करना अभूतपूर्व है। यही तो टीम गेम है जिसने रानी और अपनी टीम के प्रति बनी हर आशंका को उन्होंने ध्वस्त कर दिया। यही तो वो मिसाल है जिसने माटी में पसीना बहाकर न केवल खुदको बनाया है, बल्कि करके भी दिखाया है। महिला हाकी टीम की खिलाड़ियों में तमाम ऐसी हैं, जो समाज की कुरीतियों को ङोलकर, उनके तानों से लड़कर, अपनी गरीबी की धूल से माथे पर टीका करके घर से निकली हैं। इतना ही नहीं, इनके परिवार में तो इनके ओलिंपिक मैच का प्रसारण देखने को टीवी तक नहीं। ये सब इसलिए भी जानना जरूरी है, क्योंकि जिस संघर्ष के तप से ये बेटियां बनकर आज ओलिंपिक तक पहुंची हैं और आज जिस जीत को इन्होंने हासिल किया है, उसमें उनका संघर्ष झलकता है।

शाबाश सिंधू! वह इसलिए क्योंकि ये सब कुछ आसान नहीं था। जीत के शिखर को छूने वाली इन बेटियों का आज हर घर की बेटी के लिए प्रेरक बनना किसी चट्टान से कम नहीं है। बेटियों ने नाम किया, और वे ही देश के गौरव की गाथा को हर रंग के पदक में रंगने का माद्दा रखती हैं। इसकी गवाही वह टीस देती है, जिस वक्त पीवी सिंधू सेमीफाइनल में कांस्य जीतती हैं। यहां वे दो-दो इतिहास रच रही थीं। पहला बैडमिंटन खेल में देश के लिए दूसरा पदक लाने का और दूसरा पहली बार कोई महिला खिलाड़ी देश के लिए लगातार पदक लेकर आई।

अब शाबाशी चानू को! टोक्यो ओलिंपिक में भारत के लिए कोई उम्मीदें जगा रहा है तो वो बेटियां ही हैं। शुरुआत तुमने ही की। पूवरेत्तर से ही की। कहना नहीं चाहिए, पर सच है और जुबां पर आता ही है कि पूवरेत्तर की बेटियां जब उत्तर में आती हैं तो हम उन्हें वो सम्मान नहीं देते, जिसकी वो हकदार हैं। ओलिंपिक शुरू होते ही मणिपुर की चानू ने देश की चांदी कर दी। सभी ने सर आंखों पर बैठा लिया। मीराबाई सी लगन लगाकर पलभर में पदक लेकर उड़ आई अपने अंगना को। देश के लिए जो गौरव हासिल किया भला उसका कोई मोल अदा कर सकता है। उन्हें तो खुद से ही जिद थी, क्योंकि पहले चूक गई थीं। बात दिल को लग गई थी। यह सच है कि बेटियां जब कोई बात दिल से लगा लेती हैं तो उसे पूरा करके भी दिखाती हैं। वेटलिफ्टिंग में देश के लिए पहला रजत पदक लाकर स्वíणम इतिहास रचने वाली हो। कितनी ही बालिकाओं के लिए प्रेरक कहानी हो। चानू तुम नहीं जानती कि तुम क्या हो। तुम्हारी जीत हर मायने में बेमिसाल बन गई है। तुम्हारे आसपास भी तो सैकड़ों बेटियां होंगी, जो बोझ सिर्फ जिम्मेदारियों का ढोती होंगी। किताब, खेल और देश-दुनिया उनसे कोसों दूर होंगी। तुम उनका लक्ष्य बनोगी, उनकी साधना बनोगी, उनकी प्रेरणा बनोगी।

वैसे भी वेटलिफ्टिंग गांव, देहात, कस्बों में तो दूर की कौड़ी है। दिल्ली-एनसीआर, महाराष्ट्र और दक्षिणी राज्यों के समृद्ध शहरों में भी देख लें और अपने आसपास के जिम में नजरें दौड़ा लें तो वेटलिफ्टिंग अभी भी संकोच की बाधाओं से नहीं निकला है। बेटियां बोझ उठा सकती हैं, अतिरिक्त जिम्मेदारियों का, समाज की कुरीतियों का, लेकिन इस खेल में आज भी बहुत पिछड़ी हुई हैं बेटियां। इसलिए मीराबाई तुम्हारी इस लगन से और भी बेटियां इस खेल में जरूर मगन होंगी। वो भी समाज के बीच पड़ी संकोच की बेड़ियों को तोड़ और कुरीतियों का बोझ उठाने के बजाय वेटलिफ्टिंग के खेल में गौरव हासिल करेंगी।

मीराबाई चानू के बाद पूवरेत्तर की ही लवलीना बोरगोहेन ने भी खुद से सोने से कम की उम्मीद नहीं की है। पदक तय है, भले जो भी आए, लेकिन लवलीना ने जैसे ही जीत हासिल की उनका यह कहना सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि देश के गौरव के लिए है। अपने संघर्ष की कहानी को बताने के लिए है। जिस 69 किलोग्राम भार वर्ग में लवलीना कड़ी टक्कर दे रही हैं, विश्व पटल पर देश का नाम रोशन कर रही हैं, उसमें उन्हें खेलने को अपने देश में ही मेहनत करने को अनुकूल व्यवस्था नहीं मिलती। लेकिन छोटे से घर में की गई कड़ी मेहनत रंग लाई है। और अब बात हर किसी को चौंका देने वाली कमलप्रीत कौर की जिन्होंने डिस्कस थ्रो में वह अभूतपूर्व कर दिखाया कि सब अचंभित रह गए। ये जीत बताती है कि बेटियां अब अपना सम्मान अपने बूते बनाना जानती हैं। जमीं से आसमां तक देश की सुरक्षा ही नहीं, देश के लिए खेलकर तिरंगा लहराकर मैदान फतेह करना भी जानती हैं। शाबाश, बेटियों तुमने सचमुच कर दिखाया।

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