शिक्षा को राजनीति का अखाड़ा न बनाएं: पाठ्यक्रम बदलाव पर बेवजह विवाद

Curriculum Change Of DU दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से महाश्वेता देवी की कहानी द्रोपदी को हटाया गया है। इसके बारे में विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने अपना पक्ष रखा है। ये कहानी एक आदिवासी महिला और उसके संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमती है।

By Arun Kumar SinghEdited By: Publish:Sat, 04 Sep 2021 05:27 PM (IST) Updated:Sun, 05 Sep 2021 03:52 PM (IST)
शिक्षा को राजनीति का अखाड़ा न बनाएं: पाठ्यक्रम बदलाव पर बेवजह विवाद
दिल्ली विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में बदलाव और लेखिका महाश्वेता देवी

अनंत विजय। देशभर के विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम में नियमित अंतराल पर बदलाव होते रहते हैं। विभाग विशेष की अनुशंसा पर विद्या परिषद (अकेडमिक काउंसिल) बदलाव को स्वीकार करते हुए मंजूरी देती है। नियमानुसार साल में दो बार विद्या परिषद की बैठक आवश्यक है। मोटे तौर पर विश्वविद्लाय दो या तीन साल में अपने पाठ्यक्रमों में बदलाव करते हैं। इसके पीछे उद्देश्य ये रहता है कि छात्रों में नई प्रवृत्तियों से परिचित करवाया जा सके। इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि किसी विषय में कोई नया शोघ हुआ हो तो उससे छात्रों का परिचय हो सके। अगर साहित्य से जुड़े विषयों की बात करें तो लेखन की नई प्रवृत्तियों से छात्रों का परिचय तभी संभव होता है जब पाठ्यक्रम में उस नई प्रवृत्ति को शामिल किया जाए। अभी दिल्ली विश्‍वविद्यालय ने अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में बदलाव किया है और महाश्वेता देवी समेत कुछ अन्य लेखकों की रचनाओं को हटा कर दूसरे लेखकों की रचनाओं को स्थान दिया गया है। इसपर विवाद खड़ा किया जा रहा है। विवाद की वजह रचना नहीं बल्कि उससे इतर है।

इसको विचारधारा के आधार पर विवादित करने का प्रयास आरंभ हो गया है। कुछ वामपंथी विचारधारा के समर्थक लेखक और स्तंभकार इसको केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़कर देखने लगे हैं। उनको लगता है कि महाश्वेता देवी की रचना को पाठ्यक्रम से हटाने के पीछे हिंदुत्ववादी विचारधारा के लोग हैं। जबकि ये एक सामान्य प्रक्रिया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से महाश्वेता देवी की कहानी द्रोपदी को हटाया गया है। इसके बारे में विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने अपना पक्ष रखा है। ये कहानी एक आदिवासी महिला और उसके संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमती है। महाश्वेता देवी की रचना को पाठ्यक्रम से हटाने के फैसले की आलोचना करनेवाले ये तर्क भी दे रहे हैं कि महाश्वेता जी ने जीवन भर समाज के हाशिए के लोगों के लिए संघर्ष किया। उन्होंने उन लोगों के हितों की रक्षा के लिए आंदोलनों में भी हिस्सेदारी की। यह कहानी भी उसी वर्ग पर लिखी गई है, इसलिए इसको हटाना अनुचित है । यह ठीक बात है कि उन्होंने समाज के वंचित वर्गों के लिए संघर्ष किया, पर अब समय बदल गया है। क्या पाठ्यक्रम को बदलते हुए समय के साथ नहीं बदला जाना चाहिए।

महाश्वेता देवी समादृत लेखिका रही हैं। उनकी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। भारत सरकार ने उनको पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया है। इसके आधार पर अगर पाठ्यक्रम में उनकी रचना को रखने को फैसला होता है तो फिर उनके अन्य क्रियाकलापों पर भी विचार करना चाहिए और समग्र मूल्यांकन के आधार पर फैसला होना चाहिए। महाश्वेता देवी पर माओवादियों को हिंसा के लिए उकसाने का आरोप भी है। बात 1997 की है, तब बिहार में जातीय संघर्ष चरम पर था। जातीय हिंसा में लोग मारे जा रहे थे। 1997 के एक दिसंबर को लक्ष्मणपुर बाथे में नरसंहार हुआ। रणवीर सेना पर उस नरसंहार का आरोप लगा था। इसके बाद 27 दिसंबर 1997 को महाश्वेता देवी ने एक हस्तलिखित अपील जारी की थी। उस अपील में माओवादियों से बिहार में हुए इस नरसंहार का बदला लेने का आह्वान किया गया था।

उस वक्त बदले का आह्वान करके महाश्वेता देवी साफ-साफ हिंसा के लिए उकसा रही थीं। इस तरह हिंसा के लिए उकसाना वर्ग शत्रुओं के सफाए की विचारधारा का अनुयायी ही कर सकता है। जिसकी भी संविधान में आस्था हो और जो सार्वजनिक जीवन में हो वो किसी नरसंहार के लिए बदला लेने की बात करे तो यह उसकी सोच को दर्शाता है। बदले के इस आह्वान का कितना असर हुआ ये नहीं पता लेकिन उनकी अपील के 15 महीने बाद मार्च, 1999 में बिहार के जहानाबाद जिले के सेनारी में माओवादियों ने एक नरसंहार को अंजाम दिया। तब महाश्वेता देवी से किसी ने सवाल नहीं पूछा ना ही उनके खिलाफ माओवादियों को उकसाने का कोई केस दर्ज किया। जब भी महाश्वेता देवी का मूल्यांकन होगा तो उनके इस हस्तलिखित पत्र का उल्लेख जरूर होगा क्योंकि बगैर समग्रता के उचित मूल्यांकन संभव नहीं है। जो लोग इस आधार पर महाश्वेता देवी की रचना को पाठ्यक्रम से हटाने का विरोध कर रहे हैं कि वो एक बड़ी और सम्मानित लेखिका थीं, उनको भी महाश्वेता के उपरोक्त पक्ष पर विचार करना चाहिए।

पाठ्यक्रम में बदलाव का फैसला न तो विचारधारा के आधार पर होना चाहिए, न ही लेखक की ख्याति के आधार पर और न ही किसी को खुश करने के लिए। स्वाधीनता के बाद से इस देश में जिस तरह शिक्षा के क्षेत्र में विचारधारा को प्राथमिकता देकर उसका राजनीतिकरण किया गया उसने छात्रों का बहुत नुकसान किया। शिक्षण प्रणाली का भी। शिक्षा को राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाना चाहिए न ही पाठ्यक्रमों को तय करते समय लेखकों की विचारधारा के आधार पर फैसला लिया जाना चाहिए। पाठ्यक्रमों के बारे में निर्णय लेते समय छात्रों के हितों को सर्वोपरि रखना चाहिए। विश्वविद्यालयों के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की है।

इस शिक्षा नीति के हिसाब से तो अभी विद्यालय और महाविद्यालय स्तर पर पाठ्यक्रमों में बहुत बदलाव करना होगा। जिस तरह से भारतीयता के स्वर को इस शिक्षा नीति में प्राथमनिकता देने की बा की गई है उसके आधार पर बनने वाले पाठ्यक्रमों को बनाना भी बड़ी चुनौती है। विरोध के स्वर भी उठेंगे और विरोध का आधार भी लेखकों की प्रतिष्ठा आदि को बनाया जाएगा। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय से मिले संकेतों से सीख लेने की जरूरत है ताकि पाठ्यक्रम बनाते समय किसि प्रकार के दबाव को नकारा जा सके। दरअसल भारत में हो रहे बदलावों पर पूरी दुनिया की नजर है। शिक्षा आदि के क्षेत्र से जुड़े संगठनों पर अगर इस बदलाव का असर पड़ता है तो वो किसी भी हद तक जाकर विरोध कर सकते हैं।

इसका एक और दिलचस्प पहलू भी है। अमेरिका में रहनेवाले भारतीय मूल के लेखक सलिल त्रिपाठी ने भी दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में बदलाव पर लिखा है। विश्वविद्यालय को कठघरे में खड़ा करते हुए उन्होंने महाश्वेता देवी का गुणगान किया है। इस कहानी के बहाने सवाल खड़े करते हुए वो महाभारत के पात्र द्रोपदी और उसके चीरहरण की घटना की व्याख्या भी करने लग जाते हैं। अंग्रेजी के लेखकों के साथ दिक्कत ये है कि वो मूल ग्रंथ को नहीं पढ़ते हैं बल्कि उसके आधार पर लिखी गई पुस्तकों को आधार बना लेते हैं। महाश्वेता देवी की कहानी पर लिखते हुए द्रोपदी के चीरहरण के प्रसंग तक पहुंचते हैं तो अंग्रेजी के लेखक किरण नागरकर का उदाहरण देते हैं।

उनके हवाले से कहते हैं कि द्रोपदी का जब चीर हरण हो रहा था तो कृष्ण देर से उनके बचाव के लिए आए थे। इस प्रसंग के लिए महाभारत का मूल पाठ देखना चाहिए। पौराणिक पात्रों पर विपुल लेखन करनेवाले नरेन्द्र कोहली हमेशा मूल महाभारत में वर्णित चरित्रों के संवाद को पढ़ने की बात किया करते थे। पौराणिक और ऐतिहासिक पात्रों पर लिखना बेहद श्रमसाध्य कार्य है। इसके लिए बहुत अध्ययन की आवश्यकता होती है और प्राथमिक स्त्रोत तक पहुंचने की चुनौती भी होती है। ऐतिहासिक पात्रों पर लिखते भी हैं और उसको फिक्शन भी करार देते हैं।

फिक्शन ही लिखना है तो ऐतिहासिक पात्रों के नाम उनका परिवेश और कालखंड भी वही क्यों होता है। इस प्रकार की रचनात्मकता, फिक्शन की आड़ में इतिहास के साथ खिलवाड़ को वैधता देने की कोशिश होती है। अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए भी इस प्रविधि का सहारा लिया जाता है। यह खेल लंबे समय से हमारे देश में चल रहा है लेकिन अब जनता इस खेल को समझ चुकी है।

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