मप्र के सागर के दो गांवों की प्रेरक कहानी, जहां घास भी नहीं उगी वहां लहलहा रहे 60 हजार से अधिक पेड़

मानेगांव और डुमरिया के ग्रामीणों के जुनून की सफलता की कहानी शुरू होती है। ग्रामीणों ने बिना किसी सरकारी मदद या राशि के जंगल बचाने और बढ़ाने का संकल्प लिया और आज एक हजार एकड़ से अधिक में 60 हजार से अधिक पेड़ लहलहा रहे हैं।

By Arun Kumar SinghEdited By: Publish:Sat, 16 Oct 2021 05:27 PM (IST) Updated:Sat, 16 Oct 2021 05:27 PM (IST)
मप्र के सागर के दो गांवों की प्रेरक कहानी, जहां घास भी नहीं उगी वहां लहलहा रहे 60 हजार से अधिक पेड़
मानेगांव और डुमरिया के ग्रामीणों के जुनून की सफलता की कहानी शुरू होती है।

दीपक चौरसिया, सागर। बुंदेलखंड का बड़ा इलाका आज भी पथरीली जमीन वाला है। जहां न उपज होती है और न ही हरियाली है। इसी इलाके का एक हिस्सा नौरादेही अभयारण्य से लगा मानेगांव व डुमरिया गांव का आता है। दोनों गांव सागर जिले के देवरी-रहली मार्ग पर पड़ते हैं। इन गांवों में करीब 23 साल पहले भारत व कनाडा सरकार की इंडियन फार्म फारेस्ट्री डेवलमेंट कोआपरेटिव, संयुक्त परियोजना के तहत ग्राम समितियों के माध्यम से पौधारोपण का कार्य किया गया था।

1998 से 2001 तक परियोजना के तहत पौधारोपण किया गया और राशि भी आवंटित की गई। इसके बाद समितियों को न राशि मिली और न ही कार्य आगे बढ़ा। एक तरह से समितियों की तीन साल की मेहनत पर एकाएक पानी फेर दिया गया। यहीं से मानेगांव और डुमरिया के ग्रामीणों केजुनून की सफलता की कहानी शुरू होती है। ग्रामीणों ने बिना किसी सरकारी मदद या राशि के जंगल बचाने और बढ़ाने का संकल्प लिया और आज एक हजार एकड़ से अधिक में 60 हजार से अधिक पेड़ लहलहा रहे हैं।

बंद हो गई थी पौधों की देखरेख

मानेगांव प्राथमिक उचित वानिकी समिति केसचिव रजनीश मिश्रा बताते हैं, सरकार से राशि का आवंटन बंद होने के बाद करीब 1050 एक़ड़ में लगाए गए पौधों की देखरेख बंद हो गई। समिति के सदस्य मजदूरी करने लगे। दूसरी ओर रखरखाव के अभाव में धीरे-धीरे खत्म होते पौधों को देखकर ग्रामीणों में निराशा भी दिखाई देने लगी। आखिरकार ग्रामीण ही आगे आए और बगैर किसी मदद या मेहनताना के पौधों की देखरेख करने का संकल्प लिया।

मिश्रा के अनुसार दोनों समितियों के चालीस ग्रामीणों का एक समूह बनाया गया, जिसमें सभी सदस्यों को पुराने पौधों के रखरखाव के साथ नए पौधे लगाने और समूचे जंगल की निगरानी करने का जिम्मा सौंपा गया। इसके अलावा जंगल से सूखी लकड़ी एकत्र नहीं करने व वनोपज भी पशु, पक्षियों के लिए ही छोड़ने का निर्णय लिया गया। धीरे-धीरे मानेगांव की पांच सौ और डुमरिया की साढ़े पांच सौ एकड़ पथरीली जमीन पर सागौन, अचार, धवा और महुआ के पेड़ लहलहाने लगे। 2008 के आसपास यहां 15 से 20 फीट के पेड़ों का सघन वन तैयार हो गया और आज यहां हजारों पेड़ हैं।

जंगल से बढ़ा भूजल स्तर

बड़े इलाके में जंगल खड़ा होने का सीधा लाभ मानेगांव और डुमरिया के ग्रामीणों को भूजल स्तर बढ़ने के तौर पर मिला। रजनीश मिश्रा बताते हैं किपहले दोनों गांवों में सिंचाई के साधन नहीं थे। बोरवेल भी कारगर नहीं होते थे। जैसे-जैसे यहां जंगल सघन होता गया बोरवेल सफल होने लगे। अब खेतों में सिंचाई का साधन होने से यहां के किसान दो फसल आसानी से ले रहे हैं।

उच्च गुणवत्ता का है सागौन

जंगल में साठ फीसद से ज्यादा सागौन के पेड़ हैं। मिश्रा बताते हैं कि यहां पत्थर चटा प्रजाति का सागौन है। यह प्रजाति सागौन की सबसे अच्छी प्रजाति मानी जाती है। इसके अलावा यहां अचार और महुआ का उत्पादन भी हर साल बड़े पैमाने पर होता है लेकिन यह वनोपज जंगल के पशु-पक्षियों के लिए ही छोड़ दी जाती है, ताकि वनोपज को लेकर ग्रामीणों में किसी तरह के विवाद की स्थिति न बने।

अब सरकार करे देखभाल

समिति के सभी 40 सदस्यों की उम्र अब लगभग 50 साल से अधिक हो चुकी है। स्वयं रजनीश मिश्रा 58 साल के हो चुके हैं। उम्र के इस पड़ाव में अब जंगल की देखरेख व निगरानी संभव नहीं होती। इस दृष्टि से सदस्यों का कहना है किसरकार अब इस जंगल की देखभाल का जिम्मा ले, ताकिभविष्य में भी जंगल सुरक्षित रह सकें।

गौ रक्षा में भी तत्पर

दोनों ही गांव के लोग जंगल बचाने के साथ ही देवरी-रहली मार्ग पर दुर्घटना का शिकार होने वाले गोवंश की सेवा में भी तत्पर रहते हैं। ग्रामीण घायल गोवंश को प्राथमिक उपचार देने के बाद निकट ही स्थित जैन समाज की बीनाजी गोशाला में स्वयं के वाहन से पहुंचा देते हैं। हर साल करीब दो से ढाई सौ घायल गोवंश को यहां के ग्रामीण गोशाला में पहुंचाते हैं।

chat bot
आपका साथी