लॉकडाउन के दौरान रोजाना के अनुभवों से सीख रहे हर प्रकार का क्राइसिस मैनेजमेंट करना

क्राइसिस के समय बच्चे अपनी पढ़ाई को सबसे अधिक प्राथमिकता देते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी पढ़ाई न रुके। उन्हें मालूम है कि शिक्षा से ही उनका भविष्य संवर सकता है।

By Vinay TiwariEdited By: Publish:Sat, 06 Jun 2020 01:27 PM (IST) Updated:Sat, 06 Jun 2020 01:27 PM (IST)
लॉकडाउन के दौरान रोजाना के अनुभवों से सीख रहे हर प्रकार का क्राइसिस मैनेजमेंट करना
लॉकडाउन के दौरान रोजाना के अनुभवों से सीख रहे हर प्रकार का क्राइसिस मैनेजमेंट करना

नई दिल्ली [अंशु सिंह]। कहते हैं कि हर दौर कुछ न कुछ सिखाता है। मौजूदा संकट से भी बहुत से सबक मिले हैं, जिनसे बच्चे-किशोर गढ़ रहे हैं अपना एक अलग व्यक्तित्व। रोजाना के अनुभवों से सीख रहे हैं करना हर प्रकार का क्राइसिस मैनेजमेंट। सेव द चिल्ड्रन संस्था के एक अध्ययन के अनुसार, क्राइसिस के समय बच्चे अपनी पढ़ाई को सबसे अधिक प्राथमिकता देते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी पढ़ाई न रुके। उन्हें मालूम है कि शिक्षा से ही उनका भविष्य संवर सकता है और वे भविष्य के प्रति आशावान रह सकते हैं। 

टीवी पर बहुत कुछ देख रहे थे नौवीं के स्टूडेंट रोहण। उन्हें समझ में भी आ रहा था कि पूरी दुनिया में क्या चल रहा है और आगे की परिस्थितियां कैसी रहनी वाली हैं। लेकिन मन बार-बार अफसोस कर रहा था कि छुट्टियों में घूमने जाने की पूरी योजना फ्लॉप हो गई। क्या-क्या करने का नहीं सोचा था...? दोबारा वह मौका पता नहीं कब आए? रोहण के मन में कुछ दिनों तक इसी तरह के खयालात घूमते रहे।

फिर सोचा कि जो हो नहीं सकता, उसके बारे में सोचकर क्यों उदास होना? थोड़ा पछतावा भी हुआ कि जब लोग इतने तकलीफ में हैं, वैसे में वे इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं अपनी छुट्टियां न बिता पाने को लेकर। उन्हें एहसास हुआ कि कैसे घर पर रहने के कारण वे सुरक्षित हैं। अपने पसंद का काम कर रहे हैं, जबकि बहुत से बच्चों को न पढ़ने को मिल रहा है और न खाने को भोजन। इस तरह के खयालात के जरिए रोहण ने अपने मन को समझा लिया है।

फरमाइशें हो गईं बंद

इसमें दो मत नहीं कि वर्तमान समय में बच्चों का पूरा रूटीन गड़बड़ हो गया है। स्कूल न जाने के कारण क्लासरूम की शरारतें-मस्तियां सब बंद हो गई हैं। दोस्त छूट गए हैं। खुला स्पेस छिन गया है। बावजूद इसके, बच्चे किसी प्रकार की जिद्द नहीं कर रहे। पांचवीं में पढ़ने वाली शुभ्रा की मां और पापा वैसे तो घर से ही काम कर रहे हैं, लेकिन इतना समय नहीं मिलता कि सब साथ बैठकर बातचीत या हल्के-फुल्के पल बिता सकें। 

इससे शुभ्रा थोड़ी उदास हो जाती हैं। मगर, शिकायत नहीं करतीं। अपने सारे काम खुद से करने की कोशिश करती हैं। मां शैलजा बताती हैं कि पहले हर दिन उसकी फरमाइशों की एक बड़ी लिस्ट तैयार रहती थी। घर का खाना बिल्कुल पसंद नहीं था। लेकिन आज राजी-खुशी से सब खा लेती है। स्मार्टफोन में डूबे रहने की बजाय दादी से कहानियां सुनकर खुश रहती है। उसने कहीं न कहीं नए हालात में खुद को ढाल लिया है।

इमोशनल कनेक्शन से बढ़ा विश्वास

एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका सुमन अवस्थी कहती हैं, हमारे देश में ड्राप आउट रेट पहले से ही अधिक है। उस पर से कोरोना के कारण लाखों बच्चे घर बैठने को मजबूर हो गए। ऑनलाइन क्लासेज से टीचर-स्टूडेंट्स का इलेक्ट्रॉनिक कनेक्शन तो हो रहा है। लेकिन अनिश्चितता के इस माहौल में बच्चों से भावनात्मक रूप से कनेक्ट करना भी जरूरी है, ताकि वे अपनी पढ़ाई बीच में न छोड़ें।

इसलिए हम बच्चों से लगातार संपर्क में रहते हैं। उनका मनोबल बढ़ाने की कोशिश करते हैं। सुमन अपनी एक स्टूडेंट का जिक्र करते हुए बताती हैं, सरिता के परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। लेकिन उसने मुझे विश्वास दिलाया है कि वह अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ेगी। इस समय अपने छोटे भाई-बहनों को पढ़ाने के साथ उन्हें पेंटिंग सिखा रही है।

उम्मीद जगाते हैं किस्से

अमेरिका के पीमा कम्युनिटी कॉलेज की प्रोफेसर, मेज इमैड मौजूदा कोविड क्राइसिस में कोशिश कर रही हैं कि अपने स्टूडेंट्स से ई-मेल या फोन से जुड़ी रहें। उनके साथ क्लासरूम का जो भावनात्मक रिश्ता है, वह बना रहे। वे मानती हैं कि बच्चों से जितनी उम्मीद भरी और सकारात्मक बातें की जाएंगी, उनका आत्मविश्वास उतना ज्यादा बढ़ेगा। मेज अपने एक लेख में 1991 के ‘ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म’ के दिनों को याद करते हुए लिखती हैं, मैं तब बगदाद के एक मिडिल स्कूल की स्टूडेंट थी।

जब बमबारी शुरू हुई, तो अचानक से सभी स्कूल्स बंद कर दिए गए। हमारे पास कोई इंटरनेट या वर्चुअल मीडिया भी नहीं था। लेकिन अचानक एक सुबह मेरी टीचर घर पर आईं और मुझे होमवर्क देकर चली गईं। लौटते हुए उन्होंने कहा कि अपनी पढ़ाई जारी रखूं। मैं रात में कैंडल लाइट में पढ़ती थी, इस उम्मीद के साथ कि एक दिन वापस स्कूल जाऊंगी। उनकी वह उम्मीद जगाती बात को आज तक भूल नहीं सकी हूं।

मजदूरों की मदद के लिए आए आगे

बेंगलुरू के स्टूडेंट्स के एक समूह ने सोचा नहीं था कि वे भी किसी के काम आ सकते हैं। मजदूरों की मदद कर सकते हैं। लेकिन जब उन्होंने हजारों की संख्या में मजदूरों को भूखे-प्यासे, तेज धूप में घर जाने का इंतजार करते देखा, तो उनसे उनकी तकलीफ सहन नहीं हुई। स्टूडेंट्स ने परिवार और दोस्तों की मदद से 40 हजार रूपये इकट्ठा किए। उससे खाने, बिस्कुट, केला, पानी आदि का इंतजाम किया।

बड़ी बात ये है कि इस समूह का कोई भी सदस्य नहीं चाहता कि उनका नाम सामने आए, क्योंकि उन्होंने निस्वार्थ भाव से सब कुछ किया है। ग्रुप के एक सदस्य अमित (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि हमने पूरी लाइफ में ऐसी घटना नहीं देखी थी। भूख क्या होती है, हमें इसका एहसास नहीं था। मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं कि मेरे घर के ड्राइवर या काम करने वाले स्टाफ किस हालत में रहते हैं। लेकिन इस घटना ने बहुत कुछ सिखा दिया है।

एक-दूसरे की मदद कर बढ़ना है आगे

मान लीजिए हम किसी द्विप पर अकेले फंस जाते हैं, तो हम क्या करेंगे? वहां से बाहर निकलने के उपाय के बारे में सोचेंगे या फिर रोते रहेंगे? मौजूदा परिस्थितियां भी अचानक आई हैं। पैरेंट्स से लेकर बच्चों तक को अपने व घर के काम खुद से करने पड़ रहे हैं। वे सीख रहे हैं परिस्थितियों को हैंडल करना। फिर चाहे पौधों में पानी देना हो या डाइनिंग टेबल पर खाना सर्व करना,जो आमतौर पर बच्चे नहीं करते। लेकिन इसके साथ ही ये भी समझना होगा कि हम अकेले नहीं रह सकते। हमें एक-दूसरे की मदद करके ही आगे बढ़ना है।

(डॉ. इंदू खेत्रपाल, शिक्षाविद)

बच्चों ने कर लिया है हालात को स्वीकार

आमतौर पर जब कोई प्रॉब्लम आती है, तो बच्चे सबसे पहले परेशान हो जाते हैं कि क्या करें, कैसे करें। फिर धीरे-धीरे उसके सॉल्युशन के बारे में सोचते हैं और खुद को शांत करते हैं। इन दिनों भी कुछ वैसा ही हुआ है। बच्चों ने क्रिएटिव तरीके से अपने आपको इंगेज किया है। वे नई चीजें सीखने से लेकर वेबिनार तक आयोजित कर रहे हैं। घर के छोटे-बड़े कामों में हाथ बंटा रहे हैं।

सिर्फ गैजेट में नहीं डूबे हैं, बल्कि इंडोर गेम्स-एक्सरसाइज भी कर रहे। उन्होंने हालात से एक प्रकार का समझौता कर लिया है। ये स्वीकार कर लिया है कि जो है उससे स्वीकार करना है। छोटे बच्चे खुश हैं कि माता-पिता घर में उनके आसपास हैं, भले ही वह उनके साथ ज्यादा वक्त न बिता रहे हों। लेकिन एक सुरक्षा का भाव है।

(डॉ. आरती आनंद, वरिष्ठ मनोचिकित्सक)

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