नई शिक्षा नीति के सही क्रियान्वयन से पूरा होगा देश का सपना, दशकों बाद दिखने लगेगा इसका प्रभाव

उच्च शिक्षा को टेक्नोलाजी उन्मुख करने की सिफारिश भी महत्वपूर्ण है। अभी तक हमारे उच्च शिक्षा संस्थान खासकर सरकारी इस मामले में काफी पिछड़ रहे हैं। संयोग से पिछले एक वर्ष में महामारी ने हमें टेक्नोलाजी अपनाने को मजबूर कर दिया।

By Manish PandeyEdited By: Publish:Mon, 02 Aug 2021 12:10 PM (IST) Updated:Mon, 02 Aug 2021 12:10 PM (IST)
नई शिक्षा नीति के सही क्रियान्वयन से पूरा होगा देश का सपना, दशकों बाद दिखने लगेगा इसका प्रभाव
नई शिक्षा नीति के सही क्रियान्वयन से पूरा होगा देश का सपना

[प्रो (डा.) गोविन्द सिंह] नई शिक्षा नीति की सफलता का दारोमदार उसे ईमानदारी से लागू किए जाने पर निर्भर है। आजादी के तुरंत बाद यदि देश अपनी जरूरतों के मुताबिक नई शिक्षा नीति लागू करता तो आज यह हालत न होती। कागजी स्तर पर सुधार तो बहुत हुए, लेकिन उन्हें ठीक से लागू नहीं किया गया जिससे मैकाले की आत्मा अजर-अमर होती गयी। हमारी आज की सबसे बड़ी चुनौती यही है।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आत्मा में भारतीयता बसती है। मैकाले की परिकल्पना से अलग इस शिक्षा नीति का मकसद एक भारतीय मनुष्य तैयार करना है, जो एक बेहतर विश्व के निर्माण में योगदान करेगा। इसके लिए स्कूली और उच्च शिक्षा में अनेक परिवर्तन सुझाए गए थे। पिछले एक साल में वास्तव में इन सुधारों पर चर्चाएं ही ज्यादा हुई हैं। एक मुश्किल यह रही कि इस बीच कोविड महामारी के चलते जितनी प्रगति होनी चाहिए थी, उतनी नहीं हो पायी। लेकिन जितना काम हुआ है, वह भी कम नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा पिछले दिनों इसकी प्रथम वर्षगांठ पर जो घोषणाएं की गईं, उससे निश्चय ही इसमें गति आएगी।

जहां तक उच्च शिक्षा में सुझाए गए बदलावों की बात है, उसके मूल में बहु-अनुशासनिकता प्रमुख है। यानी अब कला, विज्ञान और वाणिज्य जैसी खांचों में बंटी शिक्षा की बजाय युवक के समग्र विकास पर आधारित उदार और लचीली शिक्षा होगी। अब विज्ञान का विद्यार्थी संगीत भी पढ़ पायेगा। साहित्य का विद्यार्थी भी प्रौद्योगिकी सीख पायेगा। यह काम इतना आसान नहीं है। इसके लिए पहले शिक्षकों को अपने मन के भीतर की जंजीरों को तोड़ना होगा, तभी कुछ कामयाबी मिल पाएगी। कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने अंतर-अनुशासनिक विषय पढ़ाने शुरू किये हैं, लेकिन अभी तक उसका खास फायदा नही मिला है क्योंकि शिक्षकों ने ही इसे खुलकर नहीं अपनाया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च शिक्षा संस्थानों को नई शिक्षा नीति के अनुरूप खुद को बदलने के निर्देश दिये हैं, लेकिन अभी संस्थाएं इस पर चर्चाएं ही कर रही हैं।

शिक्षा को और ज्यादा रोजगारोन्मुखी और कौशल केंद्रित बनाने के लिए कालेज शिक्षा के अलग-अलग चरणों से बाहर निकलने और पुन: प्रविष्ट होने की छूट देने को कहा गया है। कुछ विश्वविद्यालयों ने इसकी शुरुआत की है लेकिन अभी वह बेहद अपरिपक्व है, क्योंकि उसके लिए प्रत्येक वर्ष के पाठ्यक्रम को अपने आप में परिपूर्ण बनाना होगा, तभी बाहर निकल कर छात्र को उसके बल पर कोई रोजगार मिल पायेगा। इसी से जुड़ा हुआ बिंदु अकादमिक क्रेडिट बैंक का भी है ताकि बाहर निकलने वाले की पढ़ाई बेकार न जाये और पुन: लौटने पर उसे अपनी पुरानी पढ़ाई का फायदा मिल सके। प्रधानमंत्री ने इसका लोकार्पण तो कर दिया है, लेकिन उसका फायदा तभी हो पायेगा, जब विश्वविद्यालय अपनी स्नातक स्तरीय पढ़ाई की पुनर्रचना करें।

उच्च शिक्षा को टेक्नोलाजी उन्मुख करने की सिफारिश भी महत्वपूर्ण है। अभी तक हमारे उच्च शिक्षा संस्थान, खासकर सरकारी, इस मामले में काफी पिछड़ रहे हैं। संयोग से पिछले एक वर्ष में महामारी ने हमें टेक्नोलाजी अपनाने को मजबूर कर दिया। अब यूजीसी आनलाइन और आफलाइन दोनों ही तरीकों से शिक्षा देने को कह रहा है। इसके लिए मूक और स्वयंप्रभा जैसी सुविधाएं भी हमारे पास हैं। साथ ही इंटरनेट आधारित अध्ययन सामग्री के कोश भी तैयार हो गए हैं। आने वाले वर्षो में इसमें और इजाफा होगा। इससे न सिर्फ शिक्षकों की कमी दूर होगी, बल्कि विद्याíथयों को भी मनचाहे विषय पढ़ने को मिलेंगे। इसके लिए देश के सुदूर अंचलों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध करानी होगी। अर्थात पहले हमें अपनी डिजिटल खाईं को पाटना होगा, तभी इसका सचमुच फायदा होगा।

दुनिया के 100 शीर्ष विश्वविद्यालयों को भारत आने की अनुमति की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इससे निजीकरण में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। साथ ही, बड़ी मात्र में साल दर साल देश का जो धन बाहर जा रहा है, वह बचेगा। और हम अंतरराष्ट्रीयता की तरफ बढ़ेंगे। लेकिन असली चुनौती शिक्षा में भारतीय मूल्यों को शामिल करने की है। उच्च शिक्षा में पश्चिम का मोह इतना गहरा है कि उसे निकलते निकलते सदियां लग जायेंगी। ऐसा ही मामला भाषा का भी है। हंिदूी और भारतीय भाषाएं आज भी उच्च शिक्षा के मंदिरों में दूसरी पंगत में बैठने को विवश हैं। जब तक गंभीरता से इन्हें लागू नहीं किया जाता, हमारे लिए ‘भारतीय नागरिक’ तैयार कर पाना एक सपना ही रहेगा।

शिक्षा-व्यवस्था एक लंबी प्रक्रिया का नतीजा होती है। इसे बदलते-बदलते पीढियां लग जाती हैं। मैकाले ने 1835 में भारत के लिए शिक्षा के जिस ढांचे की कल्पना की थी, आजादी के सात दशक बाद भी उसका असर बढ़ता ही जा रहा है। यही बात नई शिक्षा नीति पर भी लागू होती है। देश-समाज पर उसका प्रभाव दशकों बाद दिखने लगेगा।

(डीन, एकेडमिक अफेयर्स, इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मास कम्युनिकेशन, नई दिल्ली)

chat bot
आपका साथी