रूप बदलता वायरस और टीकों के प्रभाव में अंतर, आसान नहीं है हर्ड इम्युनिटी की पहेली

जब कम से कम इतनी आबादी में एंटीबाडी बन जाए जिससे संक्रमण की चेन टूट सके उसे हर्ड इम्युनिटी कहते हैं और आबादी के इस प्रतिशत को थ्रेसहोल्ड कहा जाता है। टीके के जरिये सरकारों का लक्ष्य सबसे पहले इसी थ्रेसहोल्ड तक पहुंचना है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 28 Jul 2021 02:54 PM (IST) Updated:Wed, 28 Jul 2021 02:56 PM (IST)
रूप बदलता वायरस और टीकों के प्रभाव में अंतर, आसान नहीं है हर्ड इम्युनिटी की पहेली
आबादी का घनत्व भी हर्ड इम्युनिटी पर असर डालता है।

नई दिल्‍ली, प्रेट्र। कोरोना महामारी के प्रसार के साथ ही एक और शब्द जो लगातार चर्चा में रहा है, वह है हर्ड इम्युनिटी। हाल में चौथे देशव्यापी सीरो सर्वे के बाद से इसकी चर्चा ने फिर जोर पकड़ा है। सबके मन में एक सवाल आता है कि आखिर कितनी आबादी को टीका लग जाने के बाद हर्ड इम्युनिटी आ जाएगी। यह सवाल इसलिए भी उठता है, क्योंकि अलग-अलग मौके पर शोधकर्ताओं ने इसका अलग-अलग आंकड़ा दिया है। ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी आफ न्यू साउथ वेल्स के जेम्स वुड और यूनिवर्सिटी आफ सिडनी की जूली लीस्क ने इस संबंध में कई सवालों के जवाब दिए हैं।

... इसलिए मुश्किल है सटीक थ्रेसहोल्ड बता पाना : कोरोना महामारी के डेढ़ साल बीतने के बाद भी विज्ञानी ऐसा थ्रेसहोल्ड नहीं बता पा रहे हैं, जिस पर निश्चित तौर पर हर्ड इम्युनिटी आ जाएगी। यह अनिश्चितता कई बार लोगों में संदेह पैदा कर देती है। थ्रेसहोल्ड नहीं बता पाने के दो अहम कारणों पर नजर डालते हैं :

रूप बदलता वायरस और टीकों के प्रभाव में अंतर

1 कोरोना महामारी का कारण बनने वाला सार्स-कोव-2 वायरस बहुत तेजी से अपने अंदर बदलाव करता है। इसके वैरिएंट की संक्रामकता भी अलग-अलग पाई गई है। ऐसे में प्रभावी थ्रेसहोल्ड बदलता जाता है। इसी तरह, अलग-अलग वैरिएंट पर टीकों का असर भी बदलता है। फाइजर के टीके की दो डोज को अल्फा वैरिएंट पर 85 से 95 फीसद कारगर पाया गया है, जबकि एस्ट्रोजेनेका की वैक्सीन 70 से 85 फीसद तक प्रभावी रही है। वैरिएंट की संक्रामकता जितनी ज्यादा होगी और वैक्सीन का असर जितना कम होगा, महामारी पर नियंत्रण के लिए उतनी ज्यादा आबादी को टीका लगाना होगा।

2 समय के साथ हल्की पड़ जाती है एंटीबाडी कोई सटीक थ्रेसहोल्ड निर्धारित नहीं हो पाने का एक कारण यह भी है कि लोगों में बनी एंटीबाडी समय के साथ हल्की पड़ती जाती है। इंμलूएंजा की वैक्सीन के मामले में हम इसीलिए किसी हर्ड इम्युनिटी की चर्चा नहीं करते हैं, क्योंकि उस टीके से मिली सुरक्षा बहुत कम समय तक की होती है। इस साल के टीके से बनी इम्युनिटी अगले साल Flu के समय काफी हद तक निष्प्रभावी हो जाती है और उस समय के नए वैरिएंट से संक्रमण नहीं रोक पाती है। कोरोना के मामले में भी ऐसी आशंका है। इसलिए टीके की बूस्टर डोज की जरूरत पड़ सकती है। इसके अलावा, आबादी का घनत्व भी हर्ड इम्युनिटी पर असर डालता है।

संक्रमण की चेन तोड़ती है हर्ड इम्युनिटी : जब कम से कम इतनी आबादी में एंटीबाडी बन जाए, जिससे संक्रमण की चेन टूट सके, उसे हर्ड इम्युनिटी कहते हैं और आबादी के इस प्रतिशत को थ्रेसहोल्ड कहा जाता है। टीके के जरिये सरकारों का लक्ष्य सबसे पहले इसी थ्रेसहोल्ड तक पहुंचना है। अलग-अलग बीमारी के लिए थ्रेसहोल्ड अलग हो सकता है। उदाहरण के तौर पर, खसरा के मामले में 92 से 94 फीसद लोगों में एंटीबाडी बनने पर हर्ड इम्युनिटी आती है। कोरोना के मामले में इसे 85 फीसद या इससे ज्यादा माना जा रहा है।

धीरे-धीरे सामान्य होगा जीवन : हम समझ सकते हैं कि हर्ड इम्युनिटी का सटीक थ्रेसहोल्ड बताना क्यों संभव नहीं है। हालांकि जैसे-जैसे टीकाकरण बढ़ेगा, जीवन सामान्य होता जाएगा। कोरोना संक्रमण के मामले आएंगे, लेकिन कुछ जगहों पर सिमटे रहेंगे। कांटैक्ट ट्र्रेंसग और टेस्टिंग जैसे कदमों का पालन करते रहना होगा।

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