पुण्यतिथि पर विशेष: जबलपुर की सड़कों पर अपनी पत्रिका खुद बेचते थे हरिशंकर परसाई
रास्ते में जैसे ही कोई ग्राहक मिलता अविलंब पहले पृष्ठ पर लिख देते थे-पांच रुपए में सस्नेह/परसाई।
सुरेंद्र दुबे, जबलपुर। आज से 25 साल पहले 10 अगस्त, 1995 को दुनिया से अलविदा हो चुके हिंदी के व्यंग्य-पुरोधा हरिशंकर परसाई जबलपुर की सड़कों पर अपनी पत्रिका खुद बेचते थे। यह 50 के दशक की बात है, जब जबलपुर से मासिक पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसके संस्थापक संपादक थे परसाई। वे अपने झोले में 'वसुधा' के नए अंक की प्रतियां रखते और सड़क पर निकल पड़ते। इस दौरान रास्ते में जैसे ही कोई ग्राहक मिलता अविलंब पहले पृष्ठ पर लिख देते थे-''पांच रूपये में सस्नेह/परसाई।", इसके बाद बस स्टैंड पहुंचते और वहां भी वसुधा बेचने के लिए आने-जाने वालों के चेहरे पढ़ने में जुट जाते थे।
रीवा निवासी साहित्यकार कमला प्रसाद, जिन्होंने कालांतर में वसुधा का 'संपादक' होने का गौरव अर्जित किया। वसुधा का प्रकाशन जबलपुर से सन् 1956 में हुआ। पहले चरण में दो वर्ष तक पत्रिका के 24 अंक अनवरत प्रकाशित हुए। जबलपुर निवासी रामेश्वर प्रसाद गुरु ने इसका प्रबंधन संभाला और हरिशंकर परसाई ने संपादकीय जिम्मेदारी निभायी। शहर के प्रगतिशील बुद्विजीवी इसकी पृष्ठभूमि में थे। पत्रिका ग्राहकों और सदस्यों के भरोसे चल रही थी। बहरहाल, दो वर्ष पूरे होने पर संसाधनों के अभाव में जबलपुर से निकलने वाली 'वसुधा' बंद करनी पड़ी।
परसाई ने 'मेरे समकालीन' शीर्षक से लिखना शुरू किया: जबलपुर निवासी लघुकथाकार धीरेंद्र बाबू खरे बताते हैं कि आठवें दशक में मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने प्रस्ताव किया कि संगठन की अपनी पत्रिका निकले। लिहाजा, तय किया गया कि क्यों न इसी बहाने बंद हो चुकी 'वसुधा' को नवजीवन प्रदान किया जाए। इस बार सभी के आग्रह पर परसाई ने 'प्रधान संपादक' बनना स्वीकार किया। इस बार पत्रिका भोपाल से प्रकाशित हुई। जबलपुर निवासी परसाई से पत्राचार द्वारा सुझाव मिलते रहते। पांडुलिपि तैयार हो जाती, तो परसाई एक बार देख भी लेते थे। यही नहीं 'मेरे समकालीन' शीर्षक से परसाई ने वसुधा में लिखना भी शुरु किया।
छह-सात अगस्त को वसुधा के बारे में बातचीत की और 10 अगस्त को जुदा हो गए: परसाई के आजीवन प्रधान संपादक रहते वसुधा जबलपुर के बाद भोपाल और फिर रीवा से निकलने लगी। जब वसुधा का प्रकाशन भोपाल से रीवा स्थानांतरित किया गया, तो उनके मन में संकोच था। सवाल उठा कि रीवा जैसी अपेक्षाकृत छोटी जगह में साधन जुटाना और नियमित पत्रिका संपादन कैसे संभव होगा? इसके बावजूद परसाई के आग्रहपूर्ण भरोसे के कारण रीवा से वसुधा निकलने लगी। वसुधा रीवा से प्रकाशित हुई, जिसके केंद्र में परसाई ही थे। कमला प्रसाद जब तक जीवित रहे, उन्हें एक ही बात की तकलीफ थी कि परसाई जी ने उनसे लंबी बातचीत की। लगा ही नहीं कि यूं चुपके से चले जाएंगे। 10 अगस्त को वक्रोक्ति विशारद महासिद्ध वे परसाई हमसे जुदा हो गए, जिनकी कलम जीभ की तरह चलती थी। वे परसाई, जिनकी आंखें आजीवन चौकन्नी रहीं, जिन्होंने लगातार देखा कि कहां क्या गड़बड़ हो रहा है।