Guru Gobind Singh Jayanti 2021: त्याग और बलिदान की परंपरा के पुरोधा गुरु गोबिंद सिंह जी

Guru Gobind Singh Jayanti 2021 गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ बना कर एक ऐसे वर्ग को तैयार किया जो राष्ट्रहित के लिए सदैव तत्पर रहे। खालसा यानी जो मन कर्म और वचन से शुद्ध हो और जो समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 20 Jan 2021 09:29 AM (IST) Updated:Wed, 20 Jan 2021 09:29 AM (IST)
Guru Gobind Singh Jayanti 2021: त्याग और बलिदान की परंपरा के पुरोधा गुरु गोबिंद सिंह जी
गुरु गोबिंद सिंह जी साहस एवं पराक्रम के पर्याय हैं। प्रतीकात्मक

प्रणय कुमार। Guru Gobind Singh Jayanti 2021 जब राष्ट्राकाश गहन अंधकार से आच्छादित था, विदेशी आक्रांताओं एवं आतताइयों द्वारा निरंतर पदाक्रांत किए जाने के कारण संस्कृति-सूर्य का सनातन प्रकाश कुछ मद्धिम-सा हो चला था, अराष्ट्रीय-आक्रामक शक्तियों के प्रतिकार और प्रतिरोध की प्रवृत्तियां कुछ क्षीण-सी हो चली थीं, जब दिल्ली की तख्त पर बैठा एक मजहबी सुल्तान पूरे देश को एक ही रंग में रंगने की जिद्द और जुनून पाले बैठा था, जब कतिपय अपवादों को छोड़कर शेष भारत ने उस अन्याय-अत्याचार को ही अपना भाग्य मान स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया था, तब ऐसे अंधेरे वक्त में राष्ट्रीय फलक पर एक व्यक्तित्व का उदय हुआ, जिसके त्याग एवं बलिदान, साहस एवं पराक्रम ने मुगलिया सल्तनत की चूलें हिला कर रख दीं। जिसने ऐसी अनूठी परंपरा की नींव रखी, जिसकी मिसाल विश्व-इतिहास में ढूंढ़े नहीं मिलती। जिन्हें हम सब सिखों के दसवें गुरु-गुरु गोबिंद सिंह जी, दशमेश गुरु, कलगीधर, बाजांवाले, सरबंसदानी आदि नामों, उपनामों और उपाधियों से जानते-मानते और श्रद्धा से उनके श्रीचरणों में शीश नवाते हैं।

तब औरंगजेब के शासनकाल में समस्त भारतवर्ष में हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ने लगे थे। जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब में यह अत्याचार बर्बरता की भी सीमाएं लांघने लगा। विधर्मी शासकों के अत्याचारों से पीड़ित कश्मीरी पंडितों का एक समूह गुरु तेग बहादुर के दरबार में यह फरियाद लेकर पहुंचा कि उनके सामने यह शर्त रखी गई है कि यदि कोई महापुरुष इस्लाम न स्वीकार करके अपना बलिदान दे तो उन सबका बलात धर्म परिवर्तन नहीं किया जाएगा। उस समय नौ वर्ष की अल्प आयु में गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने पिता से कहा कि ‘आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है!’ उन कश्मीरी पंडितों को औरंगजेब की क्रूरता से बचाने के लिए गुरु तेग बहादुर ने सहर्ष अपना बलिदान दे दिया। उनके बलिदान के बाद उसी दिन गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरु नियुक्त किए गए। राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थान की दृष्टि से गुरु गोबिंद सिंह जी ने 30 मार्च, 1699 को आनंदपुर साहिब में लगभग 80,000 गुरुभक्तों के समागम में पांच शिष्यों के शीश मांगे तो वहां उपस्थित भक्तों का समूह सन्न रह गया। ऐसे शून्य वातावरण में लाहौर का खत्री युवक दयाराम खड़ा हो गया।

गुरु जी उसका हाथ पकड़कर पीछे तंबू में ले गए। थोड़ी देर बाद वापस आकर गुरु जी पुन: संगत को संबोधित करते हुए बोले-‘और शीश चाहिए।’ अब हस्तिनापुर का जाट धर्मदास शीश झुकाकर बोला ‘यह शीश आपका है।’ पुन: गुरु जी की वही पुकार, इस बार उनके आह्वान पर द्वारका (गुजरात) के छीपा समाज का मोहकम सिंह खड़ा हुआ, फिर बिदर (कर्नाटक) का नाई युवक साहिब चंद और सबसे अंत में जगन्नाथपुरी का झीवर हिम्मतसिंह खड़ा हुआ। संगत के हर्ष एवं आश्चर्य का उस समय कोई ठिकाना न रहा, जब गुरु जी पांचों को पूर्ण सिंह वेश शस्त्रधारी और सजे दस्तारों (पगड़ियों) के साथ बाहर लेकर आए और घोषणा की कि यही मेरे पंज प्यारे हैं। इनकी प्रतीकात्मक बलि लेकर गुरु जी ने एक नए खालसा पंथ की नींव रखी।

उन्होंने खालसा पंथ को एक नया सूत्र दिया, ‘वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह।’ उन्होंने खालसाओं को ‘सिंह’ का नया उपनाम देते हुए युद्ध की प्रत्येक स्थिति में तत्पर रहने हेतु पांच चिह्न्-केश, कड़ा, कृपाण, कंघा और कच्छा धारण करना अनिवार्य घोषित किया। खालसा यानी जो मन, कर्म और वचन से शुद्ध हो और जो समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। दरअसल गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ बना कर एक ऐसे वर्ग को तैयार किया, जो समाज एवं राष्ट्रहित के लिए सदैव तत्पर रहे। उन्होंने वर्ग-हीन, वर्ण-हीन, जाति-हीन व्यवस्था की रचना कर एक महान धाíमक एवं सामाजिक क्रांति को मूर्तता प्रदान की।

प्राणार्पण से पीछे न हटने वाले वीरों के बल पर ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में मुगलों के विरुद्ध पांच प्रमुख युद्ध लड़े-1689 में भंगारी का युद्ध, 1690 में मुगलों के विरुद्ध नादौन का युद्ध, 1700 में आनंदपुर साहिब का युद्ध, 1703 में ऐतिहासिक ‘चमकौर का युद्ध’ और 1704 में मुक्तसर का युद्ध। चमकौर का युद्ध तो गुरु जी के अद्वितीय रणकौशल और सिख वीरों की अप्रतिम वीरता एवं धर्म के प्रति अटूट आस्था के लिए जाना जाता है। इस युद्ध में वजीर खान के नेतृत्व में लड़ रही दस लाख मुगल सेना के केवल 40 सिख वीरों ने छक्के छुड़ा दिए थे।

वजीर खान गुरु गोबिंद सिंह जी को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का इरादा लेकर आया था, पर सिख वीरों ने अपराजेय वीरता का परिचय देते हुए उसके इन मंसूबों पर पानी फेर दिया। सात अक्तूबर, 1708 को गुरु जी नांदेड़ साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हुए। गुरु जी महाप्रयाण से पूर्व ऐसी गौरवशाली परंपरा छोड़ गए, जो आज भी राष्ट्र की धमनियों में ऊर्जादायी लहू बन दौड़ता है।

ऐसी महान परंपराओं का अनुगामी समाज उन उत्तेजक, अलगाववादी, देश-विरोधी स्वरों को भली-भांति पहचानता है, जो उन्हें दिग्भ्रमित या इस महान विरासत से विमुख करने का षड्यंत्र रचते रहते हैं। ऐसी कुचक्री-षड्यंत्रकारी ताकतें तब तक अपने मंसूबों में कामयाब न होने पाएंगी, जब तक गुरुओं की इस बलिदानी परंपरा की पावन स्मृतियां उनके सभी अनुयायियों और समस्त देशवासियों के हृदय में स्थित और जीवित हैं।

[भारतीय संस्कृति के जानकार]

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