पर्व प्रसंग: स्वागत है नव संवत्सर, क्या नई पीढ़ी को इसकी समझ और सम्मान का वह संस्कार दे पा रहे ?

विक्रम संवत का आरंभ है चैत्र शुक्लपक्ष की प्रतिपदा। हमारे धार्मिक रीति-रिवाज जन्म-विवाह-मृत्यु से संबंधित सामाजिक आचार-विचार दशहरा दीवाली होली रक्षाबंधन सहित सारे पर्व और त्योहार जिस तिथिपत्र के अनुसार मनाए जाते हैं वह विक्रम संवत पर ही निर्भर हैं।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Sun, 11 Apr 2021 01:49 PM (IST) Updated:Sun, 11 Apr 2021 01:49 PM (IST)
पर्व प्रसंग: स्वागत है नव संवत्सर, क्या नई पीढ़ी को इसकी समझ और सम्मान का वह संस्कार दे पा रहे ?
क्या नई पीढ़ी को हम इसकी समझ और सम्मान का वह संस्कार दे पा रहे हैं। (फोटो: दैनिक जागरण)

डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला। त्योहारों को भारतीय संस्कृति का जनक कहा जाता है। समय-समय पर इन त्योहारों ने ही हमारे सांस्कृतिक इतिहास की रचना की। वैदिक युग में ही देश और काल को महत्व देने वाले ऋषियों ने संवत्सर की महिमा को समझ लिया था और कालचक्र के विज्ञान को जीवन के उल्लास से जोड़कर उस उत्सव-धर्म की नींव रख दी थी, जो मनुष्य के संघर्ष भरे दिनों में जीवन की चमक बनाए रखने के लिए वरदान सिद्ध हुई। ऐसा ही दिन है चैत्र शुक्लपक्ष की प्रतिपदा। इस दिन का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक महत्व इसे और भी खास बना देता है।

घर-घर बांधें धर्म ध्वजा

चैत्र शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को मनाया जाने वाला उत्सव कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। यह सबसे प्राचीन त्योहार है। कहा जाता है कि सृष्टि का आरंभ इसी दिन हुआ। कहते हैं लंका में राक्षसों का संहार कर अयोध्या लौटे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का राज्याभिषेक इसी दिन किया गया था। कोई कहता है कि विक्रमादित्य का राज्याभिषेक इसी दिन हुआ। तरह-तरह की कथाओं के प्रचलन में होते हुए भी यह तो पूरी तरह सच है कि यह दिन मालव गणराज्य की अविस्मरणीय जीत की खुशी मनाने का दिन है और इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी वह खुशी कम नहीं हुई। आज भी उस खुशी को व्यक्त करने के लिए लगभग पूरे भारत में किसी न किसी रूप में यह दिन परंपरागत शैली में उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। घर-घर, द्वार-द्वार गुड़ी बांधने की परंपरा के कारण यह दिन गुड़ी पड़वा भी कहलाता है। गुड़ी विजयोल्लास की देवी हैं। नए संवत्सर की शुभ-संदेशवाहिका हैं और वह स्वर्णिम उषा है जो हमारे द्वार पर उत्सव बनकर आ खड़ी होती हैं।

क्यों भूलें अपने काल खंड

तिथिपत्र और पंचांग के अनुसार, यह विक्रम संवत के आरंभ होने का दिन है। काल के प्रवाह में विक्रम संवत ही आधुनिक है, क्योंकि इससे पहले वैदिक काल से लेकर उपनिषत्काल और रामायण-महाभारत काल से लेकर प्रियदर्शी अशोक के काल तक कई संवत हुए हैं, जिनमें से कुछ के ही नाम बचे हैं। आजादी के बाद से हमारे स्कूलों में इतिहास पढ़ाते समय ईसापूर्व (बी.सी.)  और ईसापश्चात (ए.डी.) का ही उल्लेख किया जाता है,  जबकि विक्रमादित्य ही ईसा से 57 वर्ष पहले हुए। हमें कालगणना के अपने मानकों का प्रयोग करते रहने में क्या कठिनाई थी, यह समझ से परे है। 

विक्रम संवत के आरंभ को ईसा पूर्व 57 कहने की अपेक्षा विक्रम संवत 01 कहने में भला क्या अड़चन हो सकती है? हमारे बड़े होते होनहार बच्चे पूरे विश्व की सूचनाओं से परिचित हैं,  किंतु भारतीय संस्कृति की बुनावट करने वाले विक्रम संवत से उन्हेंं अनभिज्ञ रखने का पाप किसके माथे? हिंदू संस्‍कृति की दुहाई देने वालों के परिजनों और बच्‍चों से पूछकर तो देखिए, कि अभी कौन सा संवत चल रहा है? भगवान करे, आप निराश होकर जमीन में न धंस जाएं!

गौरवशाली अतीत की आभा

विक्रम संवत से पहले के भी कई संवत प्रचलन में हैं, जिनमें सप्र्तिष संवत, युधिठरि संवत, वीरनिर्वाण निर्वाण संवत, बुद्धनिर्वाण संवत प्रमुख हैं, किंतु विक्रम संवत की जीवन-शक्ति और इसकी चमक सबसे निराली है। इस संवत के मास, पक्ष और तिथियों का आधा-अधूरा ज्ञान होने के बावजूद नई और पुरानी पीढ़ी के लोग विक्रम संवत के साथ दिल से जुड़े हुए हैं, क्योंकि हमारे धार्मिक रीति-रिवाज, जन्म-विवाह-मृत्यु से संबंधित सामाजिक आचार-विचार, दशहरा, दीवाली, होली, रक्षाबंधन सहित सारे पर्व और त्योहार जिस तिथिपत्र के अनुसार मनाए जाते हैं, वह विक्रम संवत पर ही निर्भर हैं। हम जिसे विक्रम संवत कहते है, वह अपने शुरुआती दौर में कृत संवत था, कालांतर में उज्जयिनी के मालव नरेशों की लोकप्रियता के चलते वही कृत संवत मालव संवत के नाम से जाना गया। राजा भोज के समय के आस-पास ही विक्रमादित्य के विरुद को अनंतकाल तक जीवंत बनाए रखने के लिए लोक में विक्रम संवत प्रचलित हुआ। महार्न ंहदू सम्राट विक्रमादित्य ने अपनी सभा के विद्वानों की सहायता लेकर जिस संवत को मालव संवत या कृत संवत नाम देकर कालगणना का वटवृक्ष तैयार किया, उसे उनकी लंबी वंश परंपरा ने सींचा, उसकी छाया में हल जोतते हुए किसान, श्रमिक, व्यापारी, श्रेष्ठि समाज, विप्र समुदाय, युद्ध, चिकित्सा और विद्या के क्षेत्र में अपनी फसल उगाने वाले महारथियों ने नए-नए कीर्तिमान रचे, जिनकी बदौलत हमें भारतीय इतिहास का वह स्वर्णयुग मिला, जो अब आज के लोकतंत्र में तो केवल सपना ही है।

स्वाभिमान की स्वर्णिम स्मृतियां

अब से ठीक 2078 वर्ष पहले मालव गणराज्य ने अपने जिस साहस और पराक्रम से शकों को परास्त कर विजय प्राप्त की, उसकी स्मृतियां इतनी स्वर्णिम बनी हुई हैं कि आज भी हमारा मस्तक स्वाभिमान से ऊंचा हो जाता है। इस बीच इतनी सदियां बीत गईं, आक्रांताओं के अधीन रहने का दुर्भाग्य झेलते हुए हम यहां तक आ गए, किंतु जो आलोक-स्तंभ हमारे पूर्वर्ज ंहदू नरेशों ने स्थापित किए, वह आज भी हमें आलोकित करते हैं और आगे भी करते रहेंगे। अपनी विजय को समय की रेत के साथ फिसलने से बचाए रखने का ऐसा कोई उदाहरण हमें नहीं मिलता है। आश्चर्य यह कि विक्रम संवत ने हर्में ंहदू कैलेंडर ही नहीं दिया, अपितु वर्ष भर चलते रहने वाले तीज-त्योहारों की वह सौगात भी दी, जो यदि न होती, तो हमारी लोक-चेतना न जाने कब टूटकर बिखर जाती, और हमें पता भी नहीं चलता।

सहेज लें फिर से संस्कार 

अंग्रेजों का शासनकाल तो कबका बीत गया, लेकिन अंग्रेजी शिक्षा को ही सब कुछ मान लेने की मानसिकता ने हमसे हमारे अमूल्य संस्कार छीन लिए। हमारा संवत छीन लिया, हमारी आवाज छीन ली और वह सब छीन लिया, जिस पर हम गर्व कर सकते थे। हमारी कुल-मर्यादाएं विक्रम संवत के खूंटे से बंधी हुई थीं। सम्राट विक्रमादित्य से लेकर राजा भोज के काल तक की लगभग दस सदियों में हम लोग जिस ऊंचाई पर थे, वह भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज है। क्या हमारी स्कूली शिक्षा बच्चों को अपनी मिट्टी की गंध से दूरी बनाकर रहना सिखा रही है। मैकाले की शिक्षा पद्धति को दोष देकर अपना बचाव करने वाली सरकारें तो आती-जाती रहेंगी, लेकिन हमें अपना वह स्कूल सबके लिए खुला रखना होगा, जो हमारे पूर्वजों ने बनाया, जहां के पाठ हमारे आचार्यों ने लिखे, जहां घड़ी और पल इस तरह तय किए गए, जिनमें थोड़ी सी भी ऊंच-नीच संभव नहीं। यह स्कूल विक्रम संवत है और इसकी जड़ें समूची भारतभूमि में फैल गई थीं।

हम भारतीयों का जीवन संविधान भी है जो लिखा तो नहीं गया, लेकिन जनमानस की गहराई में उतरकर अपना काम करता है। हम भारत के लोग दुख के पहाड़ के नीचे दबे हों, तब भी हंस लेते हैं, नाच लेते हैं, गा लेते हैं। इस बात के सैकड़ों उदाहरण हैं हमारे पास। अभाव और असुविधाओं में रहकर जीवन यापन करने वाले ही हमारे यहां खुशमिजाज देखे गए हैं। ये ही वे लोग हैं जो हाट-मेले में दिखाई देते हैं, तीर्थ में डुबकियां लगाते हैं, भजन-कीर्तन में झूमते हुए दिखाई देते हैं और फिर अपनी थोड़ी सी जमा-पूंजी दूसरों की भलाई के लिए दोनों हाथों से लुटाते हुए दिखाई देते हैं। ये वे लोग हैं, जो ज्यादा आधुनिक नहीं हुए, किंतु उस संस्कृति से जुड़े हुए हैं, जो विक्रम ने दी, भर्तृहरि ने दी और फसल उगाने वाले अन्नदाताओं ने दी। ये लोग हैं, तो हम आश्वस्त हैं कि यह जीवन संग्राम चाहे जितना मुश्किल भरा हो, अंतत: मनुष्यता की प्रतिपदा ही अपनी विजय-ध्वजा फहराएगी। तो आएं, हम सब मिलकर नववर्ष का स्वागत करें, अपना नव संवत्सर मनाएं! 

(लेखक भारतीय संस्कृति के अध्येता हैं)

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