Minimum Support Price: कभी जरूरत था न्यूनतम समर्थन मूल्य, अब बना फांस

किसान अन्नदाता हैं और इस लिहाज से उनकी मदद तो आवश्यक है लेकिन इस पर विचार समय की मांग है कि वह मदद किस रूप में हो ताकि किसान भी आगे बढ़ें और देश भी। एमएसपी का लाभ मुख्य रूप से कुछ राज्यों में सिमटकर रह गई है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 19 Jan 2021 07:21 PM (IST) Updated:Wed, 20 Jan 2021 12:17 AM (IST)
Minimum Support Price: कभी जरूरत था न्यूनतम समर्थन मूल्य, अब बना फांस
गरीबों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए हुई थी एमएसपी की शुरुआत।

सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली। एमएसपी यानी कुछ अनाज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर चर्चा छिड़ी है। इसे कानूनी गारंटी बनाने की मांग तेज हो गई है। इस पर राजनीतिक जंग भी छिड़ी है। यही वजह है कि इस पर बहस को कोई तैयार ही नहीं दिख रहा कि हर नियम, प्रविधान व कानून की तरह एमएसपी के तौर-तरीके और औचित्य में बदलाव होना चाहिए या नहीं। बहरहाल, 55 वर्ष पहले एमएसपी की शुरुआत का आधार बनाने वाली एलके झा कमेटी ने उसी वक्त कह दिया था- 'खाद्यान्न के अभाव को दूर करने के लिए एमएसपी भले ही वरदान साबित हो, लेकिन सरप्लस पैदावार के समय यही समर्थन मूल्य अभिशाप साबित होगा।' बताने की जरूरत नहीं कि वर्ष 1965 की कृषि और अर्थव्यवस्था मौजूदा परिस्थितियों से बिल्कुल भिन्न थी। देश इस समय सरप्लस खाद्यान्न वाला देश बन चुका है, यानी यह कई फसलें अपनी खपत जरूरत से अधिक उपजा रहा है। विशेषकर अनाज उत्पादन के मामले में भारत दुनिया के अव्वल देशों की सूची में शुमार हो गया है, लेकिन अभी भी देश दलहनी व तिलहनी फसलों की पैदावार के मामले में बहुत पीछे है।

1960-70: भारत की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के लिए मुश्किल दौर था

वर्ष 1960-70 भारत की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के लिए मुश्किल दौर था। आयात निर्भरता लगातार बढ़ रही थी। देश के नीति नियामकों की पूरी ताकत खाद्यान्न सुरक्षा बनाए रखने के लिए वैश्विक बाजारों से अनाज की मांग में लगती थी। घरेलू जरूरतों के मुकाबले मुट्ठीभर अनाज की पैदावार हो रही थी। उस दौरान देश में खाद्यान्न की कुल पैदावार मात्र पांच करोड़ टन के आसपास थी, जो मौजूदा पैदावार का मात्र 15-16 फीसद था। इसके अलावा बागवानी, डेयरी, पशुधन का उत्पादन बहुत सीमित था। इसके चलते देश की आबादी का बड़ा हिस्सा कुपोषण का शिकार था।

खाद्यान्न की आयात निर्भरता से देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित थी

दूसरी ओर, खाद्यान्न की आयात निर्भरता से देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो रही थी। इसके बावजूद पर्याप्त अनाज का आयात नहीं हो पा रहा था। पीएल-480 स्कीम से संयुक्त राज्य अमेरिका से अनाज का आयात किया जा रहा था। वहां से आयातित लरमारोहो प्रजाति का मोटा गेहूं भारत के उपभोक्ताओं को अच्छा नहीं लगता था, लेकिन उनके समक्ष और कोई विकल्प नहीं था। इसके साथ-साथ भारतीय उप-महाद्वीप में अमेरिकी दखल देश की विदेश नीति को बुरी तरह प्रभावित कर रहा था। यही वह वक्त था जब सरकार ने गरीबों को सस्ता अनाज मुहैया कराने और किसानों को प्रमुख फसलों की खेती पर जोर देने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) शुरू किया। इसके लिए तत्कालीन सरकार में वरिष्ठ अधिकारी एलके झा की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय कमेटी का गठन किया गया।

गरीबों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए हुई थी एमएसपी की शुरुआत

कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में एमएसपी लागू करने और गरीबों को राशन मुहैया कराने के लिए भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के गठन की सिफारिश की थी। इसके आधार पर वर्ष 1965 में एग्रीकल्चरल प्राइसेज कमीशन (एपीसी) का गठन किया गया। सिफारिश में किसानों को उनकी कृषि उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने, एफसीआइ के सहारे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और गरीबों को रियायती दरों पर अनाज मुहैया कराने को प्रमुखता से शामिल किया गया। रोचक तथ्य यह है कि जब एमएसपी लागू किया गया था तब जोत के हिसाब से किसानों से एमएसपी पर अनाज लिया जाता था। यानी जो बड़े किसान थे उनसे ज्यादा खरीदारी होती थी, क्योंकि उस वक्त कम उपज के कारण एमएसपी बाजार भाव से कम होता था। लिहाजा तब किसानों के लिए यह बाध्यकारी था। बाद के वर्षों में उपज बढ़ी, हरित क्रांति के कारण भारत आत्मनिर्भर हुआ तो बाजार नियम को नजरअंदाज कर एमएसपी किसानों को लुभाने लगा।

सरप्लस इकोनॉमी के लिए एमएसपी हो जाएगा अभिशाप: एलके झा कमेटी 

देश में झा कमेटी की अनुशंसा तो लागू हो गई, लेकिन सरकार विशेषज्ञों के इस संकट को भूल गई,कि सरप्लस इकोनोमी के लिए एमएसपी घातक है। दरअसल पिछले पचास 55 वर्षों में इसका स्वरूप पूरी तरह बदल गया है। जिसकी शुरूआत खाद्यान्न जरूरत से हुई थी, वह बाद में एक सीमित क्षेत्र के किसानों के लाभ तक सीमित हुआ और फिर धीरे-धीरे राजनीतिक मुद्दा बन गया।

एमएसपी का राजनीतिक दुरुपयोग 

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के कृषि अर्थशास्त्र के प्रोफेसर राकेश कुमार का कहना है 'एमएसपी एक ऐसा टूल रहा है, जो उपज बढ़ाने के साथ गरीबों को सस्ता अनाज मुहैया कराने के काम आता रहा है, लेकिन इसका दुरुपयोग भी कम नहीं हुआ है। राजनीतिक लाभ के लिए राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्र तक में इसे शामिल कर लाभ लेने की कोशिश की गई। चुनाव के पूर्व वाले वर्षों में फसलों के एमएसपी में अभूतपूर्व वृद्धि की जाती रही हैं। समर्थन मूल्य का निर्धारण करने वाली संस्था कृषि लागत व मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों को दरकिनार कर सत्तारुढ़ दलों ने इसे संशोधित किया है।'

एमएसपी का लाभ कुछ राज्यों में सिमटकर रह गया

हरित क्रांति के जरिये भारत को खाद्यान्न प्रचुर बनाने वाले पंजाब व हरियाणा को भूजल के अति-दोहन की वजह से अब डार्क एरिया माना जाने लगा है। इसका स्थान अब पूर्वी राज्य ले सकते हैं। जबकि एमएसपी का लाभ मुख्य रूप से ऐसे ही कुछ राज्यों में सिमटकर रह गई है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि विश्व व्यापार और अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए एमएसपी के तौर-तरीके, प्रासंगिकता और उसके उपयोग पर व्यापक चर्चा की जरूरत है। किसान अन्नदाता हैं और इस लिहाज से उनकी मदद तो आवश्यक है, लेकिन इस पर विचार समय की मांग है कि वह मदद किस रूप में हो ताकि किसान भी आगे बढ़ें और देश भी।

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