किसान संगठनों द्वारा एमएसपी गारंटी की मांग औचित्यहीन, पढ़े एक्सपर्ट व्यू

हरितक्रांति के लिए सरकार ने अधिक उत्पादन को प्रोत्साहित करना शुरू किया। 1966 में अधिक उत्पादित अनाज को खरीद की गारंटी के तहत एमएसपी घोषित हुई। अब जब हम अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर हैं तो एमएसपी जैसा प्रविधान खुद ब खुद औचित्यहीन हो जाता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 29 Nov 2021 11:42 AM (IST) Updated:Mon, 29 Nov 2021 11:42 AM (IST)
किसान संगठनों द्वारा एमएसपी गारंटी की मांग औचित्यहीन, पढ़े एक्सपर्ट व्यू
एमएसपी जैसी सुविधा का कभी भी लाभ नहीं मिल पाता उसे भी फायदा हो सके।

प्रो राकेश गोस्वामी। देश में 1964-65 और 1965-66 में दो साल लगातार अकाल पड़ा। इसके पहले देश 1962 में चीन से युद्ध हार चुका था। 1965 में पाकिस्तान से फिर जंग हो गई। इन सभी कारणों से देश की अर्थव्यवस्था लगभग टूट सी गई। उस समय तक भारत खाद्यान्न के लिए अमेरिका पर निर्भर था। अमेरिका पीएल-480 योजना के तहत भारत में खाद्यान्न भेजता था, लेकिन ऐसा करने में वह खूब नखरे दिखाता था। इसी वजह से भारत में हरित क्रांति की कल्पना की गई। अमेरिकी एग्रोइकोनॉमिस्ट नॉरमन बोरलॉग और भारतीय कृषि विज्ञानी एमएस स्वामीनाथन की अगुआई में हुई हरित क्रांति का उद्देश्य भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाना था। इसके लिए मेक्सिको से ज्यादा पैदावार वाले बीज मंगाए गए और उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग करके ज्यादा फसल पैदा करने का प्रयास किया जाने लगा। पैदावार बढ़ाने के लिए उन इलाकों का चुनाव किया गया जहां सिंचाई की सुविधा थी और वहां के किसानों के पास निवेश के लिए पूंजी थी। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का इलाका इस लिहाज से मुफीद था।

इसी के साथ सरकार को ये भी लगा कि किसान ज्यादा से ज्यादा पैदावार करें इसके लिए उन्हें कुछ प्रोत्साहन भी दिया जाना चाहिए। तब सरकार ने कहा कि किसानों खूब फसल उगाओ, हम आपकी फसल की खरीद मूल्य की गारंटी देंगे। पहली बार 1966 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया। इसका खूब फायदा हुआ। 1980 के अंत तक भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बन गया। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि जिस उद्देश्य के लिए एमएसपी की व्यवस्था लागू की गई जब उसकी पूर्ति दशकों पहले ही हो चुकी है तो इसे जारी रखने का क्या औचित्य है। गौरतलब है कि हर बुआई से पूर्व भारत का कृषि लागत और मूल्य आयोग अनुमान लगाता है कि किसान का कितना खर्च होने की संभावना है और उसी आधार पर एमएसपी की संस्तुति करता है। इसी आधार पर आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी एमएसपी पर फैसला करती है।

केंद्र सरकार ने किसान आंदोलन के दौरान कई बार स्पष्ट किया कि एमएसपी की यही व्यवस्था आगे भी जारी रहेगी और इसे हटाने की उसकी कोई मंशा नहीं है फिर भी किसान इसे कानूनी जामा पहनाने की मांग पर अड़े हुए हैं। यहां यह जानना भी जरूरी है कि एमएसपी की व्यवस्था से सबसे अधिक लाभान्वित भी पंजाब और हरियाणा के किसान होते हैं। यूं तो देश के सिर्फ छह फीसद किसानों को एमएसपी का फायदा मिलता है लेकिन पंजाब का लगभग 88 फीसद धान और लगभग 70 फीसद गेहूं एमएसपी पर खरीदा जाता है। विश्व की सबसे विशाल कल्याणकारी योजना के रूप में चलने वाली राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना के तहत देश के 80 करोड़ से अधिक व्यक्तियों को रियायती दरों पर अनाज उपलब्ध कराया जाता है। इसके लिए जो खरीद भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआइ के द्वारा की जाती है उसमें 35 फीसद धान, 62 फीसद गेहूं और 50 फीसद मोटा अनाज सिर्फ पंजाब और हरियाणा से आता है।

एमएसपी सिर्फ अनाज, दलहन और तिलहन की कुछ फसलों के लिए घोषित किया जाता है। सरकारी खरीद तो सिर्फ गेहूं और चावल की ही होती है। बाकी फसलों के लिए केवल ये गारंटी है कि खरीद बिक्री एमएसपी से कम रेट पर नहीं होगी। फल, फूल और सब्जी के लिए अभी भी एमएसपी जैसी कोई गारंटी नहीं है। तो ऐसे में क्या एक ऐसी व्यवस्था को जारी रखना न्यायोचित होगा जिससे सिर्फ कुछ फीसद किसानों को फायदा होता हो। अब समय आ गया है कि इस व्यवस्था को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाए।

इससे सिर्फ धान और गेहूं की खेती करने वाले किसान अन्य फसलें बोने लगेंगे तो कृषि क्षेत्र में बहुप्रतीक्षित सुधारों को गति मिलेगी। बिगड़ चुका क्राप पैटर्न दुरुस्त होगा। परिवर्तन होने चाहिए जिससे भारत का 80 फीसदी किसान जो छोटा और मंझोला है और जिसे एमएसपी जैसी सुविधा का कभी भी लाभ नहीं मिल पाता उसे भी फायदा हो सके।

[क्षेत्रीय निदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू]

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