लंबे अर्से से उठ रही है न्यायिक प्रक्रिया में भारतीय भाषाओं के समावेश की मांग

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान भारतीय कानूनी व्यवस्था के औपनिवेशिक स्वरूप पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि न्यायिक प्रणाली का भारतीयकरण समय की मांग है। उनकी यह चिंता जायज है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 27 Sep 2021 10:25 AM (IST) Updated:Mon, 27 Sep 2021 10:25 AM (IST)
लंबे अर्से से उठ रही है न्यायिक प्रक्रिया में भारतीय भाषाओं के समावेश की मांग
न्यायालयों में प्रयोग की जानी वाली भाषा से जुड़ी बहस एक बार फिर चर्चा में है।

कैलाश बिश्नोई। यह विडंबना है कि देशवासी अपने ही देश में अपनी भाषाओं में सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों में न्याय की गुहार नहीं लगा सकते हैं। वर्तमान प्रविधानों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की न्यायिक प्रक्रियाओं में (कुछ राज्यों के उच्च न्यायालय को छोड़कर) समूची प्रक्रिया अंग्रेजी में ही होती है। हमारे देश में ऊपरी अदालतों की भाषा को लेकर अनेक अवसरों पर सवाल उठते रहे हैं कि यह आम आदमी की समझ से परे है। कई दफा यह मांग उठी कि उच्च अदालतों में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में भी मुकदमे दायर करने और फैसले सुनाने का प्रविधान होना चाहिए। लेकिन इस मामले में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है।

जब तमाम सरकारी कार्यालयों में हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कामकाज पर जोर दिया जाता है, तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की भाषा आम आदमी की भाषा क्यों नहीं बन सकती? जबकि वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की 43 प्रतिशत आबादी हिंदी को अपनी प्रथम भाषा के तौर पर स्वीकार करती है और 30 प्रतिशत से ज्यादा लोग हिंदी को द्वितीय वरीयता देते हुए अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को प्रथम भाषा मानते हैं। वहीं अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा मानने वाले लोग कुल जनसंख्या का 0.2 प्रतिशत हैं। ऐसे में देश की उच्च न्यायिक प्रक्रिया में अंग्रेजी का अनिवार्य होना एवं अन्य सभी भारतीय भाषाओं का कानूनी तौर पर प्रतिबंधित होना बेहद अप्रासंगिक एवं अतार्किक प्रतीत होता है।

अगर अदालतों की भाषा की पड़ताल करें तो पाएंगे कि उच्चतर अदालतों में मुकदमे से जुड़े वादियों को अंग्रेजी समझ में नहीं आती है, लिहाजा उस भाषा में लिखे फैसले की तासीर भी वे समझ नहीं पाते हैं। सिर्फ वकील से इतना ज्ञात हो पाता है कि उनकी हार हुई है या जीत। यह न्याय प्राप्त करने की मूल भावना के विरुद्ध है। यदि एक सजा प्राप्त मुजरिम सिर्फ भाषा की समस्या के कारण यह न समझ पाए कि कोर्ट ने उसको वह सजा किन तथ्यों और प्रक्रियाओं के आधार पर दी है तो यह न्याय व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों के विपरीत है। अगर न्यायालय की कार्यवाही अंग्रेजी में होती है जहां अधिकांश आबादी इस भाषा से अनभिज्ञ है तो वो इसे शंका की दृष्टि से देखेगी एवं न्यायालय के फैसलों में विश्वसनीयता का अभाव होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायालयों का कामकाज इस तरह हो कि वह केवल न्यायाधीश और वकील के बीच का संवाद बन कर न रह जाए, उसमें वादी और प्रतिवादी की भी हिस्सेदारी होनी चाहिए। मगर वह केवल कुछ गवाहियों तक सीमित रह जाती है। न्यायालयों में वादपत्र लिखने का तरीका एवं शब्दावली, दोनों ही आम लोगों के लिए आसानी से समझ में आने योग्य नहीं होती। याचिका दाखिल करने के निर्धारित प्रारूप की भाषा एवं तरीके को क्लिष्ट ही कहा जा सकता है। कई बार स्थिति ऐसी होती है कि याचिकाकर्ता के आवेदन की भाषा उसी की समझ से बाहर होती है। इसी प्रकार निर्णयों की भाषा भी सरल होनी चाहिए ताकि वह वादियों की समझ में आसानी से आ सके। अभी देखा यह जाता है कि कुछ निर्णय इतने क्लिष्ट होते हैं कि विधि विशेषज्ञ भी उन्हें समझने में असमर्थ रहते हैं और न्यायालय से उन्हें स्पष्ट करने का अनुरोध करना पड़ता है।

संविधान में वर्णित भाषाओं में भी लोगों को न्याय मिलना चाहिए। जब सांसदों के दिए भाषणों को संविधान में वर्णित सभी 22 भाषाओं में तुरंत अनुवाद की व्यवस्था है तो ऊपरी अदालतों में इस तरह की व्यवस्था करने पर क्यों नहीं सोचा जा सकता है? मसलन हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी या बंगाल में बांग्ला में बहस और फैसले क्यों नहीं दिए जा सकते? सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसी व्यवस्था की जा सकती है। हालांकि यह तर्क दिया जाता है कि कानून की किताबें अंग्रेजी में हैं, पढ़ाई अंग्रेजी में होती है, संसद में कानून अंग्रेजी में बनते हैं और अंग्रेजी के शब्द कानून विषय की बेहतर ढंग से व्याख्या करते हैं। अक्सर यह दलील भी दी जाती है कि भारत की अभी कोई भी भाषा तकनीकी रूप से उन्नत नहीं है, यह सही नहीं है। यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो और निवेश किया जाए तो किसी भाषा को तकनीकी रूप से उन्नत बनाया जा सकता है। विधि आयोग ने हिंदी में करीब 20 हजार कानूनी शब्दावली तैयार की है और अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई जाए तो इस चुनौती से पार पाया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की आधिकारिक भाषा को लेकर संविधान के अनुच्छेद 348(1) के अंतर्गत यह प्रविधान है कि इनकी भाषा अंग्रेजी होगी। यह प्रविधान तब तक लागू रहना था जब तक संसद कोई अन्य प्रविधान न कर दे। इसका मतलब जब तक संसद किसी अन्य व्यवस्था को न अपनाए, तब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की कार्यवाही केवल अंग्रेजी भाषा में होगी। अनुच्छेद 348(2) में यह प्रविधान किया गया कि किसी भी प्रदेश के राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस प्रदेश के उच्च न्यायालय में हिंदी या उस प्रदेश की राजभाषा में उच्च न्यायालय की कार्यवाही संपन्न करने की अनुमति दे सकते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी कार्यवाही की अनुमति दी गई है, जिस वजह से हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों में हाल के वर्षो में हिंदी में बहस करने का चलन बढ़ा है और अदालतों में इसकी स्वीकार्यता भी बढ़ी है। परंतु इसी तरह की मांग जब अन्य राज्यों से की गई तो उनकी मांग को ठुकरा दिया गया और यहां आज भी ऊपरी अदालतों में कामकाज की भाषा अंग्रेजी ही है।

ऐसे में इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि वह व्यक्ति जो अंग्रेजी जानता ही नहीं, न्यायालयों में अपना पक्ष इसी भाषा में रखने के लिए विवश है। समय की मांग है कि संसद कानून बनाकर ऊपरी अदालतों में हिंदी तथा संविधान में वर्णित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रविधान करें।

[शोध अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]

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