छत्तीसगढ़ : 40 डिग्री में भी न एसी चाहिए और न कूलर, दोरला आदिवासियों का मकान ही काफी

मानव विज्ञानियों का भी मानना है कि दोरला जनजाति की मकान बनाने की कला गर्मी से राहत देने वाली है। सुकमा जिले के कोंटा तहसील के वनांचल में रहने वाली दोरला जनजाति शीतलता प्रदान करने वाले घरों के कारण गर्मी से बेफ्रिकहै।

By Neel RajputEdited By: Publish:Tue, 13 Apr 2021 06:32 PM (IST) Updated:Tue, 13 Apr 2021 06:32 PM (IST)
छत्तीसगढ़ : 40 डिग्री में भी न एसी चाहिए और न कूलर, दोरला आदिवासियों का मकान ही काफी
मकान की बनावट ही ऐसी कि सूरज की गर्मी को घर में प्रवेश नहीं मिलता

जगदलपुर [विनोद सिंह]। छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के दक्षिण भू-भाग में पारा मई में ही 40 से 45 डिग्री तक पहुंच जाता है, लेकिन यहां निवासरत दोरला आदिवासी गर्मी से बेफिक्र रहते हैं। इसके मकान की बनावट ही ऐसी है कि सूरज की गर्मी को घर में सीधा प्रवेश नहीं मिलता। मकान के अंदर का तापमान बाहर की अपेक्षा पांच से सात डिग्री कम होता है। आदिम जाति अनुसंधान केंद्र ने इनके मकान बनाने की कला का अध्ययन कर इस विशेषता को रेखांकित किया है। लकड़ी के 18 खंभों से इनकेमकान का ढांचा तैयार होता है। इसमें लकड़ी और ताड़ के पत्तों का ज्यादा से ज्यादा उपयोग किया जाता है।

मानव विज्ञानियों का भी मानना है कि दोरला जनजाति की मकान बनाने की कला गर्मी से राहत देने वाली है। सुकमा जिले के कोंटा तहसील के वनांचल में रहने वाली दोरला जनजाति शीतलता प्रदान करने वाले घरों के कारण गर्मी से बेफ्रिकहै। लकड़ी, बांस, ताड़ के पत्तों और मिट्टी निर्मित विशिष्ट बनावट वाले इनके घर मानव विज्ञानियों के लिए उत्सुकता और अनुंसधान का विषय रहे हैं। छत्तीसगढ़ शासन के आदिम जाति कल्याण विभाग की अनुंसधान इकाई ने हाल में ही प्रदेश की 36 जनजातियों की संस्कृति, रहन-सहन और सामाजिक, आर्थिक स्थिति आदि को समाहित कर पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया है। पुस्तिका में दोरना जनजाति केआवास की विशिष्ट शैली की विस्तार से चर्चा की गई है। इस जनजाति की 90 फीसद आबादी बस्तर संभाग के सुकमा और बीजापुर जिले में रहती है। साथ ही तेलंगाना, आंधप्रदेश और महाराष्ट्र के सीमाई इलाके में भी इस जनजाति के लोग निवासरत हैं।

मकान को आधार देते हैं 18 खंभे

दोरला जनजाति के मकान चौकोर होते हैं। लकड़ी के18 खंभों पर बने घर में 12 खंभे दीवार में और छह अंदर लगाए जाते हैं। अंदर के छह खंभों पर लकड़ी की बल्लियों या ताड़ के वृक्ष के चीरे हुए तने से पटाव या छत बनाया जाता है, जिसे दोरली बोली में अट्टुम कहा जाता है। इस पर घास या ताड़ के पत्ते या बड़े खपरे लगाए जाते हैं। यह छत का मध्य भाग है। यह चौकोर और ऊंचा होता है। इसकी वजह से सूरज की रोशनी सीधे घर में प्रदेश नहीं करती। इसकी ऊंचाई लगभग 15 फीट होती है, जबकि किनारे का भाग नीचा होता है। इसकी ऊंचाई लगभग 10 फीट होती है। मकान की दीवार चटाई और बांस से बनाकर उसमें मिट्टी की लेप च़़ढ़ाई जाती है। बाद में चौखट और दरवाजे लगाए जाते हैं। मकान में कई रोशनदान भी बनाए जाते हैं।

जगदलपुर आदिम जाति अनुसंधान केंद्र के सहायक अनुंसधान अधिकारी मानवविज्ञानी डा. राजेंद्र सिंह ने कहा, 'बस्तर की आदिवासी संस्कृति विलक्षण है और उतनी ही विलक्षण दोरला के आवास निर्माण की विशिष्ट शैली है। गर्मियों में इनके आवास के अंदर और बाहर के तापमान में पांच से सात डिग्री तक का अंतर देखा गया है।'

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