नसीबपुर में दी थी पाच हजार वीरों ने शहादत

भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास नारनौल क्षेत्र के गाव नसीबपुर का जिक्र किए बिना अधूरा है, क्योंकि नसीबपुर स्थित जंग-ए-मैदान में ही क्राति के दौरान यहा के सैनिकों ने अपनी कुर्बानी दी थी।

By Edited By: Publish:Mon, 13 Aug 2012 09:27 AM (IST) Updated:Mon, 13 Aug 2012 09:34 AM (IST)
नसीबपुर में दी थी पाच हजार वीरों ने शहादत

जागरण संवाद केंद्र, नारनौल। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास नारनौल क्षेत्र के गाव नसीबपुर का जिक्र किए बिना अधूरा है, क्योंकि नसीबपुर स्थित जंग-ए-मैदान में ही सन् 1857 की क्राति के दौरान यहा के 5 हजार अनाम सैनिकों ने अपनी कुर्बानी दी थी।

हालाकि 16 नवंबर सन् 1857 को हुए इस युद्ध में राजा राव तुलाराम व राव कृष्णा गोपाल जैसे कई महान योद्धा भी अगुवाई करने के लिए डटे हुए थे, परंतु उन 5 हजार अनाम वीरों की गौरवगाथा भी आजादी के इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज रहेगी, जिन्होंने मा भारती की आजादी के लिए युद्ध भूमि में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते हुए कुर्बानी दी थी। यह अलग बात है कि आजादी की क्राति के इतिहास में इन राष्ट्रभक्तों की कुर्बानी को वैसा महत्व नहीं मिल पाया, जिसके वे हकदार थे। अंग्रेजों ने तो इस क्रांति को 1857 का गदर, बगावत और विद्रोह जैसे नाम दिए थे, परंतु वास्तव में यहा हुई रक्तिम क्राति ही देश के स्वतंत्रता संग्राम की नींव मानी जाती है।

नसीबपुर के जंग-ए-मैदान की रक्तिम माटी आज भी उस बलिदान की गवाह है। इस युद्ध के बारे में खुद अंग्रेज लेखक मालेसन ने कहा था कि-हिन्दुस्तानी सैनिक इतनी वीरता के साथ इससे पहले कभी नहीं लड़े। अंग्रेजी फौज की ऐसी विकट टक्कर किसी दुश्मन से नहीं हुई होगी।

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 1857 की क्राति को दबा कर अंग्रेजों ने 20 सितंबर 1857 को दिल्ली पर फिर से अधिकार कर लिया था, लेकिन वर्तमान दक्षिणी हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में आजादी की ज्वाला कमजोर नहीं पड़ी थी। राव राजाओं के साथ कुछ अन्य रजवाड़े भी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए कटिबद्ध थे। इन्हें सबक सिखाने के लिए जनरल शॉवर्स ने रेवाड़ी पर हमला करने के लिए दो अक्टूबर 1857 को एक फौजी टुकड़ी के साथ दिल्ली से कूच किया।

शावर्स की शक्ति व इरादों की भनक लगने पर राव तुलाराम ने युद्ध के लिए अनुपयुक्त रामपुरा किले को छोड़ दिया और राजस्थान की तरफ निकल गए। रामपुरा किले को खाली पाकर हताश शावर्स कानोड़ (महेंद्रगढ़) की तरफ निकल गया। कानोड़ का किलेदार अंग्रेजों का वफादार माना जाता था। इस दौरान राव तुलाराम ने जोधपुर के विद्रोही सैनिकों से मिलकर न केवल अपनी शक्ति में इजाफा किया बल्कि रेवाड़ी पर भी फिर से अधिकार कर लिया।

अंग्रेजों ने खबर लगने पर कर्नल जेरार्ड को राव तुलाराम को कुचलने व रेवाड़ी पर अधिकार करने के लिए भेजा। सामरिक दृष्टि से नारनौल की स्थिति रेवाड़ी से बेहतर मानकर राव तुलाराम नारनौल पहुंचे। हिसार के मोहम्मद आजम और झज्जर के अब्दुल समद खा भी वहीं मिल गए।

सभी क्रातिकारियों ने सराय नामक एक विशाल भवन में मोर्चा ले लिया, क्योंकि सराय एक मजबूत किलेनुमा भवन था, जो युद्ध की दृष्टि से काफी उपयोगी था। जेरार्ड की हिम्मत जवाब दे गई। उसने अतिरिक्त सैनिक बुला लिए। एक पूरे तोपखाने के साथ नारनौल पर आक्रमण के लिए कूच कर दिया। लगभग 12 घटे के थका देने वाले सफर के बाद जेरार्ड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने नारनौल से तीन किलोमीटर दूर नसीबपुर के मैदान में पड़ाव डाल दिया।

जब राव तुलाराम व अन्य भारतीय वीरों को अंग्रेजों के नसीबपुर में पड़ाव की खबर मिली, तो जंग के लिए तैयार बैठे हिन्दुस्तानी सैनिक भी अपना मोर्चा छोड़ कर नसीबपुर पहुंच गए। यह बड़ी भूल थी, क्योंकि सराय युद्ध की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण थी, परंतु भारतीय सैनिक भारी जोश में थे। आक्रमण होते ही फिरंगियों की सेना में भगदड़ मच गई। कर्नल जेरार्ड भी गोली लगने से ढेर हो गया। अंग्रेजी सेना बिखर गई, परंतु अंग्रेजों ने तोपखाने का मुंह खोल दिया।

इससे भारतीय सेना संभल नहीं पाई। बेशक भारतीय जवान इस युद्ध के बल पर उस समय आजादी हासिल नहीं कर पाए, लेकिन नसीबपुर के मैदान में दिया गया उन रणबाकुरों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी दिखाई संघर्ष की राह पर चलकर ही भारत मा के अमर सपूतों ने 15 अगस्त 1947 को देश को आजाद करवाकर ही चैन लिया।

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