Caste Census of India: जातीय जनगणना की मांग और राजनीति बढ़ाने वाले कदम

Caste Census of India संविधान के समक्ष स्वाधीन भारत के सभी नागरिक बराबर होंगे पर आज जिस स्थिति में भारतीय राजनीति पहुंच गई है उसे देख कहा जा सकता है कि अब जातिवाद की राजनीति चरम पर पहुंच गई है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 24 Sep 2021 10:12 AM (IST) Updated:Fri, 24 Sep 2021 10:13 AM (IST)
Caste Census of India: जातीय जनगणना की मांग और राजनीति बढ़ाने वाले कदम
जातिगत जनगणना को लेकर मुखर हैं तेजस्वी यादव, नीतीश कुमार, मुकेश सहनी और जीतन राम मांझी (बाएं से दाएं)। प्रेट्र

उमेश चतुर्वेदी। Caste Census of India आजादी के आंदोलन के दौरान स्वाधीनता सेनानियों ने सपना देखा था कि स्वाधीन भारत में जातिवाद को जड़ से समाप्त कर दिया जाएगा। संविधान सभा में 11 दिसंबर, 1946 को बतौर सभापति अपने पहले भाषण में डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि संविधान सभा ऐसा संविधान बनाएगी, जो किसी भी नागरिक से उसकी जाति, मजहब या प्रांत के नाम पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि संविधान के सामने स्वाधीन भारत के सभी नागरिक बराबर होंगे, पर आज जिस स्थिति में भारतीय राजनीति पहुंच गई है, उसे देख कहा जा सकता है कि अब जातिवाद की राजनीति चरम पर पहुंच गई है। जिस तरह जाति जनगणना को लेकर राजनीति तेज हुई है, उसके संकेत तो यही हैं।

सवाल यह है कि आखिर भारतीय संविधान सभा ने जातिवाद को खत्म करने का विचार कहां से लिया था? इसका जवाब गांधी जी के एक लेख में मिलता है। एक मई, 1930 को ‘यंग इंडिया’ में गांधी जी ने लिखा था, ‘मेरे अपनों के, हमारे, सबके स्वराज में जाति और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। स्वराज सबके लिए..कल्याण के लिए होगा’, लेकिन क्या हुआ कि देश में जाति की राजनीति लगातार बढ़ती चली गई। ऐसा नहीं कि गांधी के नैतिक और प्रत्यक्ष- दोनों तरह के निर्देशन में काम कर रही कांग्रेस जातिवाद के आधार पर फैसले नहीं लेती थी। 1937 के चुनावों तक में कांग्रेस ने भी जाति और धर्म के हिसाब से भी उम्मीदवार तैयार किए थे, लेकिन उसमें लिहाज था। यह उलटबांसी ही कही जा सकती है कि जातिवाद को बढ़ावा देने में सबसे ज्यादा योगदान उस समाजवादी धारा के राजनेताओं का रहा है, जिसके नेता डा. राममनोहर लोहिया जाति तोड़ो का नारा देते थे। डा. लोहिया मानते थे कि समाज में समता जैसे ही आएगी, जातिवाद खत्म हो जाएगा।

लोहिया का सोच भले ही अच्छा रहा, लेकिन उनके अनुयायियों ने जातियों को खत्म करने के बजाय जातियों की राजनीति शुरू कर दी। उनके अनुयायियों ने जाति खत्म करने की दिशा में कोई काम नहीं किया। दरअसल जैसे-जैसे आजादी अतीत का विषय बनती गई, वैसे-वैसे राजनीति जाति को खत्म करने के बजाय जातिवाद को बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ती गई। आज जाति जनगणना की जो मांग बढ़ी है, उसके पैरोकार नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और जीतनराम मांझी खुद को लोहियावादी बताते नहीं थकते। यह संयोग नहीं है कि जाति जनगणना की पहली बार मांग बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल यानी बीपी मंडल ने 1980 में की थी। यह बात और है कि तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने इसे नामंजूर कर दिया था। यहां याद कर लेना चाहिए कि ये वही बीपी मंडल रहे, जिन्होंने पिछड़ों को लेकर कुछ ही वक्त पहले रिपोर्ट दी थी, जो भारतीय राजनीति के इतिहास में मंडल आयोग की रिपोर्ट के नाम से मशहूर है।

भारत में 1872 में अंग्रेजों ने जनगणना की शुरुआत की, लेकिन जाति आधारित जनगणना सिर्फ और सिर्फ एक बार 1931 में ही हुई थी। अंग्रेज जिस तरह भारत को तोड़ने का कुचक्र रच रहे थे, कोई शक नहीं कि जाति जनगणना के विचार के पीछे भी देश तोड़ने की ही मंशा थी। इस तथ्य को आजादी के बाद सरदार पटेल ने भी समझा। आजादी के बाद जब 1951 की जनगणना की तैयारी हो रही थी, तब भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठी थी, लेकिन पटेल ने इसे यह कहते हुए नामंजूर कर दिया था कि ऐसा करने से भारत का सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा। यहां यह भी याद किया जाना चाहिए कि दूसरा विश्व युद्ध होने की वजह से साल 1941 में जनगणना हुई ही नहीं थी।

1950 का साल हो या फिर 1980 का या फिर आज का वक्त, जाति आधारित जनगणना की मांग को नामंजूर करने वाले गृहमंत्रियों का एक ही तर्क रहा है कि इससे सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा। जाति जनगणना की मांग करने वालों का तर्क है कि इससे सभी जातियों की सही जानकारी मिली तो उनके हिसाब से उनके योग्य योजनाएं बनाने और उन्हें लागू किए जाने में मदद मिलेगी। मंडल आयोग की भी रिपोर्ट इसी सोच की बुनियाद पर लागू की गई थी कि इससे पिछड़ी जातियों को राजनीतिक और आíथक आधार पर मजबूत करने में मदद मिलेगी, लेकिन मंडल आयोग के बाद पिछड़ों के लिए जो आरक्षण दिया गया है, जिस तरह पिछड़ी जातियों का आíथक-राजनीतिक और सामाजिक सशक्तीकरण हुआ है, उसकी उलटबांसी को रोहिणी आयोग ने भी सामने ला दिया है।

मंडल आयोग के हिसाब से केंद्रीय सूची में पिछड़ी जातियों की संख्या 2633 है, लेकिन आरक्षण लागू होने के इतने दिनों बाद भी इस सूची में एक हजार से अधिक जातियां ऐसी हैं जिनके लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पाया है। यही वजह है कि जाति जनगणना के खिलाफ अब छोटी जातियां सामने आने लगी हैं। बिहार के माली समाज ने विरोध करते हुए कहा है कि अगर जातिगत जनगणना हुई तो कम जनसंख्या वाली पिछड़ी जातियों को और नुकसान उठाना पड़ेगा। होगा कि जिस जाति के लोगों की संख्या ज्यादा होगी, लोकतंत्र की आधुनिक परिपाटी के मुताबिक वह खुद को और ताकतवर महसूस करने लगेगी और आरक्षित संसाधनों पर ताकत से कब्जा करेगी। बेशक आज के दौर के हिसाब से सवर्ण जातियां भले ही पिछड़े और अनुसूचित वर्ग के निशाने पर हैं, लेकिन असलियत यह है कि हर जाति अपने से कमजोर जाति के खिलाफ ताकत का प्रदर्शन कर रही है। राजनीतिक, आíथक और सामाजिक हकों पर अपनी ताकत के हिसाब दावेदारी कर रही है। जातिगत जनगणना की मांग उसी दावेदारी का परोक्ष समर्थन है, लेकिन जानबूझकर या फिर अनजाने में इस तथ्य को राजनीतिक दल समझ नहीं रहे हैं।

संविधान सभा ने सोचा था कि संविधान और कानून के सामने कोई विशेष नहीं होगा। जाति, धर्म और प्रांत के आधार पर किसी से कोई भेदभाव न हो, इसका ध्यान रखा गया। संविधान के अनुच्छेद 14 में इसीलिए समानता को मूल अधिकार में शामिल किया गया। यह ठीक है कि आजादी के कुछ साल बाद तक के लिए जातीय आधार पर आरक्षण दिया गया। वैसे इसे अनंत काल तक लागू किए जाने के खिलाफ खुद डा. अंबेडकर भी थे। उनका भी लोहिया की तरह मानना था कि इस व्यवस्था से समाज में समानता आएगी और फिर किसी को विशेष दर्जा देने की जरूरत नहीं रहेगी, लेकिन इसका ठीक उलट हुआ। चूंकि जातियां राजनीति का नया हथियार बनती चली गईं, यही वजह है कि जातीय जनगणना की मांग उठ रही है। जातीय जनगणना की मांग करने वाले उन जातियों का और ज्यादा समर्थन हासिल करने की कोशिश में हैं, जिनकी बुनियाद और समर्थन पर उनकी राजनीति टिकी हुई है, लेकिन इसका उलटा यह होना है कि जैसे ही जातीय जनगणना हुई, संख्या के लिहाज से जो जातियां ताकतवर होंगी, वे अपने लिए और हिस्सेदारी मांगेंगी। इससे जातिवाद ही परोक्ष रूप से बढ़ेगा। इससे समानता के सिद्धांत का ही उल्लंघन होगा, लेकिन दुर्भाग्यवश जाति की बुनियाद पर लगातार मजबूत होती राजनीतिक व्यवस्था इसे समझ नहीं पा रही है। जाति जनगणना की मांग उसी का विस्तार है।

[राजनीतिक विश्लेषक]

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