सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच अनवरत संघर्ष, कानून भी जवानों की मदद करने में विफल

यह उपन्यास हमें यह भी एहसास कराता है कि कैसे हमारे बहादुर जवान उन परिस्थितियों में भी कानून की रक्षा के लिए जान न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं जब स्वयं कानून भी उनकी मदद करने में विफल हो जाता है।

By Neel RajputEdited By: Publish:Sun, 05 Dec 2021 10:17 AM (IST) Updated:Sun, 05 Dec 2021 10:17 AM (IST)
सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच अनवरत संघर्ष, कानून भी जवानों की मदद करने में विफल
नक्सल हिंसा के कथानक वाले इस उपन्यास को पढ़ते हुए स्मृति में कई सच्ची घटनाएं सजीव हो उठती हैैं।

ब्रजबिहारी। महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति जुबिन इरानी के अभिनय और निर्देशन की उपलब्धियों से हम सभी परिचित हैं। टेलीविजन पर सफल करियर के बाद राजनीति में भी लगातार कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रहीं इरानी अब लेखक के रूप में सामने आई हैं। उनका पहला उपन्यास 'लाल सलाम' पाठकों के हाथ में है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस उपन्यास का कथानक नक्सल समस्या पर केंद्रित है। अप्रैल, 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सल हमले में सीआरपीएफ के 76 जांबाजों के बलिदान से प्रेरित इस रचना में केंद्रीय मंत्री ने देश के इस सबसे पिछड़े और गरीब राज्य में धुर वामपंथियों और सुरक्षा बलों के बीच चल रहे अनवरत संघर्ष के बीच मानवीय मूल्यों और नैतिक दुविधाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है। यह उपन्यास हमें यह भी एहसास कराता है कि कैसे हमारे बहादुर जवान उन परिस्थितियों में भी कानून की रक्षा के लिए जान न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं, जब स्वयं कानून भी उनकी मदद करने में विफल हो जाता है।

इस उपन्यास के नायक हैं भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) के एक आदर्शवादी और अतिउत्साही अधिकारी विक्रम प्रताप सिंह। छत्तीसगढ़ के अंबुजा में वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी और अपने बचपन के मित्र दर्शन कुमार एवं उनके सहयोगियों की बारूदी सुरंग में मृत्यु की घटना से विचलित विक्रम को जब पता चलता है कि इसकी जांच उसे ही सौंपी गई है तो उसे लगता है कि वह जल्द ही अपराधियों तक पहुंच जाएगा और उन्हें सजा भी दिलवाएगा, लेकिन उसके बाद एक-एक कर हत्याओं का क्रम शुरू होता है, जो थमने का नाम नहीं लेता है। दर्शन कुमार और उनके साथियों के बाद विक्रम के संपर्क में आने वाले निशाना बनते हैं। एक महिला पत्रकार की लाश उसके घर से बाहर पेड़ पर टंगी मिलती है। सुरक्षा के सख्त घेरे में रहने वाले एक उद्योगपति को सुबह टहलते समय गोली से उड़ा दिया जाता है। उसके बाद रिटायर आइपीएस अधिकारी अपने घर में मृत पाए जाते हैं।

एक मामले की जांच शुरू नहीं होती है कि दूसरी घटना घट जाती है। एसपी विक्रम प्रताप सिंह खुद को जांच की एक अंधेरी गुफा में खड़ा पाते हैं। वे अकेले क्या कर सकते हैं। उनकी विवशता थाना भवन और बुनियादी संचार एवं परिवहन सुविधाओं से महरूम पुलिस व्यवस्था की पोल खोलती नजर आती है। हालांकि सुविधाओं के अभाव के बाद भी वे कर्तव्य पथ पर बढ़ते जाते हैं, लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा निराशा तब होती है, जब उन्हें पता चलता है कि पुलिस, प्रशासन और उद्योग जगत के कुछ प्रभावशाली लोगों का नक्सलियों से गहरा संबंध है। दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय स्तर के एक विद्वान प्रोफेसर भी इन नक्सलियों के मददगार हैं।

दरअसल, उपन्यास को पढ़ते समय पाठक आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि किस प्रोफेसर की बात हो रही है। यही नहीं, देश की शीर्ष अदालत के नामचीन वकील भी पहचाने जा सकते हैं। ये प्रोफेसर, वकील, पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारी कैसे गरीबों के नाम पर अपनी-अपनी दुकान चला रहे हैं, इसका उपन्यास में ईमानदारी से चित्रण किया गया है। इस उपन्यास में यलगार परिषद और भीमा-कोरेगांव की गूंज भी सुनाई देगी कि कैसे इन राष्ट्रविरोधी ताकतों ने प्रजातांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार को अस्थिर करने के लिए षड्यंत्र रचा था।

यह उपन्यास सही मायने में एक थ्रिलर है। पाठक एक बार पढ़ना शुरू करेगा तो खत्म करने से पहले उठना नहीं चाहेगा। दृश्य माध्यम में लेखिका के अनुभवों की छाप इस पर स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। कहने का आशय यह है कि अगर कोई निर्माता-निर्देशक इस पर फिल्म बनाने की सोचे तो उसे ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। नक्सल हिंसा की घटनाओं का एक घनीभूत घटनाक्रम उनका इंतजार कर रहा है। उपन्यास में कई सटीक डायलाग भी हैं। जैसे, जब एसपी विक्रम प्रताप सिंह महिला पत्रकार की हत्या के बाद जांच करने पहुंचते हैं और अपने अधीनस्थ अधिकारी से लाश के नाखून से खून के नमूने के बारे में पूछते हैं तो उसका जवाह आता है, 'सर, वो लेवल का फोरेंसिक टीवी शो में होता है, अंबुजा में नहीं।'

हालांकि यह उपन्यास अंग्रेजी में लिखा गया है, लेकिन इसकी भाषा काफी सरल है। सिर्फ एक चीज समझ में नहीं आई कि इतना तेज-तर्रार आइपीएस अधिकारी विक्रम प्रताप सिंह भला यह कैसे भूल गया कि अगर उसे किसी के मोबाइल काल का रिकार्ड प्राप्त करना है तो इसके लिए मोबाइल कंपनी को एक मेल भी भेजना होता है।

पुस्तक का नाम: लाल सलाम

लेखिका: स्मृति जुबिन इरानी

प्रकाशक: वेस्टलैंड पब्लिकेशंस

मूल्य: 399 रुपये

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