Coronavirus News: बेहतर रोग प्रतिरोधक क्षमता दिलाएगी इस महामारी से आजादी

Coronavirus News कोरोना महामारी से मुक्ति के लिए आज भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया तमाम तरकीबों को आजमाने में जुटी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 15 Aug 2020 01:46 PM (IST) Updated:Sat, 15 Aug 2020 03:10 PM (IST)
Coronavirus News: बेहतर रोग प्रतिरोधक क्षमता दिलाएगी इस महामारी से आजादी
Coronavirus News: बेहतर रोग प्रतिरोधक क्षमता दिलाएगी इस महामारी से आजादी

कौशल किशोर। Coronavirus News आज आजादी के उत्सव का दिन है। इस अवसर पर देश भर में स्वतंत्रता संग्राम का स्मरण करने का रिवाज है। हम आज ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जब कोरोना वायरस के संक्रमण से न केवल हमारा देश, बल्कि लगभग समूची दुनिया प्रभावित है। धरती का एक विशाल हिस्सा इस महामारी के खिलाफ जंग में शामिल है। ऐसी दशा में इसके संक्रमण से संग्राम और महामारी के भय से आजादी की बात भी फिजा में गूंज रही है।

अचानक ही इस वायरस ने दुनिया भर में लोगों के बीच दहशत और तबाही मचा दी। इस कारण तालाबंदी की प्रक्रियाएं शुरू हुईं और टीकों के आविष्कार में तेजी भी आ गई। वैक्सीन से जुड़े शोधकार्यो में कई गुणा बढ़े निवेश से यह स्पष्ट भी होता है। इस समस्या का निदान करने के नाम पर इसे जल्द से जल्द बाजार में उतारने की तैयारियां चल रही हैं। इसी बीच दिल्ली में राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) द्वारा 27 जून से पांच जुलाई के बीच 21,387 लोगों पर सीरो-सíवलेंस सर्वेक्षण किया गया।

संक्रमण की वास्तविक स्थिति जानने के लिए एनसीडीसी ने फिर से इस माह अगस्त में भी 15 हजार लोगों पर यह सर्वेक्षण शुरू किया है। पिछले सर्वेक्षण की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। औसतन 24 प्रतिशत आबादी में एंटी-बॉडी मौजूद पाया गया है। यह आम लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता का नतीजा है। इसका मतलब है कि इतनी बड़ी आबादी संक्रमित हुई और स्वत: ही ठीक हो गई। यानी इन लोगों के लिए टीकाकरण की आवश्यकता नहीं है।

सीरो सर्वेक्षण की रिपोर्ट से दिल्ली वासियों की इम्यूनिटी की ही तस्वीर उभरती है। परिणामस्वरूप इस संक्रमण की वास्तविक संख्या भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बताए गए आंकड़ों से 20 से 50 गुणा तक अधिक हो सकती है। ऐसे में तमाम वैज्ञानिक मॉडल को फिर से समझने की जरूरत है। ऐसे में किसी नई पहल को अमल में लाने से पहले नीति निर्माताओं के लिए मानविकी जैसे अन्य विषयों के विद्वानों की सलाह पर निरंतर गौर करने की जरूरत है। यह भी स्पष्ट हुआ कि विशाल घरों के अहाते में अलग-थलग रह कर अपने कार्य के संचालन में सक्षम लोगों का एक वर्ग कड़ी मेहनत करने वाले उन प्रवासियों की परवाह नहीं करता है जो तालाबंदी शुरू होते ही पैदल गांवों की ओर निकल पड़े। इसकी अधिकांश जिम्मेदारी उन वैज्ञानिकों व नीति निर्माताओं के कंधों पर है, जिन्होंने तालाबंदी लागू करने से पहले शायद इन पक्षों पर मजबूती से विचार नहीं किया।

आइसीएमआर के आंकड़ों से द्वितीयक संक्रमण दर से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी सामने आती है। भारत में यह छह फीसद है। इसका मतलब हुआ कि एक दूसरे के निकट संपर्क में होने के बावजूद परिवार के 94 फीसद सदस्यों में संक्रमण नहीं फैला है। इससे स्पष्ट होता है कि यह बीमारी तब तक नहीं फैलती है जब तक कि अनुकूल स्थिति पहले से ही उपलब्ध न हो। सौ साल पहले महात्मा गांधी इस बात का जिक्र गाइड टू हेल्थ पुस्तक में कर चुके हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ (गांधीनगर) ने संक्रमण की दर के बारे में उल्लेख एक रिपोर्ट में किया है जो पांच से 50 प्रतिशत के बीच है। ऐसी दशा में यदि बीमारी एक इलाके में फैलती है तो अनेक लोगों पर इसके हमले का खतरा होता है। संक्रमण की इस दर को अमूमन 10 से 20 प्रतिशत लोगों के बीच आंका गया है। इससे संक्रामक बीमारी की आशंका को बल मिलता है व टीकाकरण को एकमात्र समाधान के तौर पर पेश किया जाता है। इस क्रम में व्यापक तौर पर प्रचारित उस धारणा पर भी सवाल उठते हैं जो किसी सार्वजनिक स्थान पर होने वाले संक्षिप्त संपर्क से संक्रमण के विस्तार की पैरवी करते दिखते हैं।

देखा जाए तो भय का साम्राज्य लंबे समय से कई परेशानियों का कारण है। वर्तमान संकट भी इसके महत्व का ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करता है। वैज्ञानिक वर्ग ने परहेज के तौर पर तालाबंदी का सुझाव दिया और नीति निर्माताओं ने इसे आनन-फानन लागू किया, जब संक्रमण की संख्या तीन अंकों में ही सीमित रही। फिर चरम पर पहुंचने पर इसे खोलने की प्रक्रिया शुरू हुई। स्वास्थ्य और आíथक संकट का डर इन दोनों ही स्थितियों में राष्ट्र-राज्य की अंतरात्मा पर हावी दिखती हैं। इस संकट की दशा में उम्मीद तो यह की जाती है कि राज्य सरकारें और केंद्र की सरकार आपसी समन्वय के माध्यम से ही सबकुछ करें, लेकिन इसका अधिकांश मामलों में अभाव दिखा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1978 में अल्मा-आटा घोषणा के तहत सभी के लिए हेल्थ केयर का नियम तय किया था। दुख की बात है कि डब्ल्यूएचओ सार्वभौमिक स्वास्थ्य के उदात्त सिद्धांतों को इस महामारी में भूल जाता है। जन स्वास्थ्य के प्रति जिम्मेदार विश्व की सर्वोच्च संस्था ने दशकों पुरानी परंपरा को त्याग कर लोक समाज की भूमिका को खत्म कर दिया।

कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए टीकों का परीक्षण इन दिनों प्रगति पर है। परंतु इनमें से कोई भी अचूक इलाज का दावा नहीं कर सकता है। हालांकि लोग बड़ी उम्मीद के साथ इन्हें अंतिम उपाय के तौर पर देख रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसी माह के आरंभ में अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए यह कहा भी है कि इन टीकों से इलाज की पुख्ता गारंटी नहीं है। इस स्थिति में संक्रमण के खिलाफ प्रतिरक्षा और स्वस्थ जीवन की पारंपरिक विधियां कहीं अधिक प्रासंगिक दिखती हैं। व्यक्तिगत शुद्धि और इम्यूनिटी ही इस महामारी से वास्तविक आजादी दिलाने में सक्षम है। चेचक के संक्रमण के दौर में गांधीजी ने प्राकृतिक चिकित्सा और योग का अभ्यास करने पर जोर दिया था। वर्तमान कोरोना महामारी के दौर में भी संक्रमण के खतरों से आजादी के सिलसिले में यह उसी तरह से कारगर है।

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