Afghanistan Crisis: क्या अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी अमेरिका की सहमति से हुई है?

Afghanistan Crisis घरेलू दबाव और विश्व राजनीति में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण अमेरिका अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति का विस्तार नहीं कर सका लिहाजा वह अपनी इस विफलता को मिशन पूरा होने के तौर पर प्रचारित कर रहा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 21 Aug 2021 10:35 AM (IST) Updated:Sat, 21 Aug 2021 10:39 AM (IST)
Afghanistan Crisis: क्या अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी अमेरिका की सहमति से हुई है?
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के तौर-तरीके से आलोचना के घेरे में आया अमेरिका। रायटर

राजन झा।अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की जिस तेजी से वापसी हुई है उसे देखते हुए कई सवाल खड़े होते हैं। वर्ष 2001 के बाद से अब तक यानी लगभग दो दशकों तक अमेरिकी सेना की मौजूदगी के बावजूद मात्र चंद दिनों में ही तालिबानियों ने बिना किसी लड़ाई और खून खराबे के आसानी से किस तरह अफगानिस्तान पर फतह हासिल कर ली? क्या अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी अमेरिका की सहमति से हुई है? यदि हां, तो इसके पीछे अमेरिका की क्या मजबूरी हो सकती है? मजबूरी इसलिए कि जिस तालिबान की सत्ता को अमेरिका की सुरक्षा के लिए खतरा बताकर अफगानिस्तान में हजारों मासूमों की हत्या की गई, आज उसी तालिबान को अमेरिका इतनी आसानी से देश पर कब्जा कैसे करने दे रहा है? इसके अलावा, अमेरिका द्वारा वर्ष 2001 में मानवाधिकार, महिलाओं के अधिकार, लोकतंत्र और राष्ट्र निर्माण जैसे किए गए वायदे भी पूरे नहीं हो सके। आखिरकार क्या वजह है कि अमेरिका उपरोक्त तथ्यों के बावजूद अपनी अंतरराष्ट्रीय शाख के साथ समझौता करता हुआ दिख रहा है?

इतिहास के सबसे महंगे युद्धों में से एक : गत वर्ष प्रकाशित एक आकलन के अनुसार, अमेरिका ने वर्ष 2001 से अफगानिस्तान में अपने मिशन में 2.2 अरब डालर यानी 61 लाख करोड़ डालर से अधिक खर्च किया है। यह दुनिया के कई देशों की वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से अधिक है। अमेरिका का अफगान युद्ध इतिहास के सबसे महंगे युद्धों में से एक है। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह युद्ध वैश्विक आर्थिक मंदी के समय हुआ जिसमें सबसे ज्यादा प्रभावित देश अमेरिका है। साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह एक बर्बादी है, क्योंकि इराक और अन्य जगहों के विपरीत अफगानिस्तान में इस युद्ध का रणनीतिक रूप से हासिल बहुत ही कम था। वैसे देखा जाए तो इराक युद्ध से जहां अमेरिका को कच्चे तेल का फायदा हुआ, वहीं अफगानिस्तान में ऐसा कुछ भी हासिल नहीं हो सका यानी अमेरिका को अफगान युद्ध में भारी आर्थिक नुकसान हुआ।

वर्ष 2001 में युद्ध शुरू होने के बाद से अमेरिकी अर्थव्यवस्था की औसत वृद्धि दर दो प्रतिशत से भी कम रही है। यह वर्ष 2008, वर्ष 2009 और 2020 में नकारात्मक रही। कोविड महामारी के प्रकोप के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था ऐतिहासिक रूप से साढ़े तीन प्रतिशत तक नकारात्मक रही जो पिछली सदी के तीसरे दशक की आर्थिक मंदी के बाद सबसे अधिक है। इस आर्थिक संकट के बावजूद अमेरिका के रक्षा बजट में कोई कटौती नहीं होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिकी साम्राज्यवाद को दुनिया में कोई चुनौती नहीं मिल सके।

चीन का आर्थिक उभार : वर्तमान में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में चीन का उदय और अगले एक दशक में अमेरिका को पीछे छोड़ विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने के तमाम अनुमानों को देखते हुए चीन, रूस के साथ मिलकर अमेरिका को कई अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर चुनौती दे सकता है। चीन पहले ही अपनी महत्वाकांक्षी ‘बेल्ट एंड रोड परियोजना’ के माध्यम से आक्रामक रुख अपना चुका है। अफ्रीका में नए सहयोगी बनाने के लिए चीन वहां भारी निवेश भी कर रहा है। रूस और ईरान जैसे देशों, जिनके पास सैन्य और आर्थिक विकास दोनों में पर्याप्त संभावनाएं हैं, उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में चीन के साथ अपनी स्थिति को मजबूत किया है और पश्चिम एशिया, अफ्रीका और पूर्वी यूरोप में अमेरिका को और उसके सहयोगियों को चुनौती दी है। आज चीन ने अमेरिका को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी चुनौती देना शुरू कर दिया है।

पिछले कुछ दशकों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारी निवेश के कारण आज चीन की उपस्थिति अंतरिक्ष में है। रूस के साथ सहयोग चीन को समग्र सैन्य प्रौद्योगिकी में भी अमेरिकी प्रभावों को आसानी से बेअसर करने की क्षमता देता है। स्पष्ट है कि अमेरिका बड़े पैमाने पर सैन्य बजट और दुनिया भर में बहुत सारे युद्धों में शामिल होने के ज्यादा परेशान है। विश्व राजनीति में चीन के इस उभार को वैश्विक परिदृश्य में एक बड़े बदलाव के रूप में समझा जा सकता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि चीन का सामना करने के लिए अमेरिका अपनी वैश्विक उपस्थिति को युक्तिसंगत बनाना चाहेगा। प्रतिद्वंद्विता के संकेत ट्रंप के कार्यकाल से ही दिखाई दे रहे थे, जब अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार युद्ध शुरू किया था। वर्तमान बाइडन प्रशासन के तहत इसे एक नया आयाम दिया जा रहा है।

बाइडन प्रशासन ने चीन विरोधी नीतियों को जारी रखा है, जिससे साबित होता है कि न तो तनाव अस्थायी था और न ही ट्रंप के चीन विरोधी पूर्वाग्रह का परिणाम था। चीन और रूस की बढ़ती नजदीकियों से अमेरिका चिंतित है। ट्रंप युग के प्रतिबंधों के बाद रूस और चीन के साथ ईरान की बढ़ती निकटता ने बाइडन प्रशासन के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। अफगानिस्तान को लेकर चीन और पाकिस्तान की बढ़ती निकटता ने अमेरिका को फौरी तौर पर सोचने को मजबूर किया है। लिहाजा अमेरिका को अपने साम्राज्यवादी युद्ध को समेटना पहली प्राथमिकता है। अफगानिस्तान इस दिशा में पहला बड़ा कदम कहा जा सकता है। चीन अभी अफगानिस्तान में आर्थिक रूप से ही सीमित है, पर भविष्य में इसकी सामरिक व भू-राजनीतिक सक्रियता बढ़ सकती है। शिनजियांग की समस्या इसका एक प्रमुख कारण है। पाकिस्तान के साथ स्थायी शत्रुता से भारत पर इसका गंभीर परिणाम हो सकता है। ऐसे में भारत को अमेरिकी छाया से बाहर निकल स्वतंत्र अफगान नीति तय करनी होगी। अफगान के साथ संबंध को द्विपक्षीय बनाना होगा। चीन के साथ विवादों के मद्देनजर भारत को रूस व ईरान के साथ मिलकर अपने संबंध मजबूत करने होंगे।

घरेलू दबाव और विश्व राजनीति में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण अमेरिका अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति का विस्तार नहीं कर सका, लिहाजा वह अपनी इस विफलता को मिशन पूरा होने के तौर पर प्रचारित कर रहा है। हालांकि सच्चाई यही है कि अमेरिका ने जिन परियोजनाओं मसलन राष्ट्र निर्माण, महिलाओं को अधिकार दिलाना आदि को शुरू किया था, उनमें से वह किसी को पूरा नहीं कर पाया। अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी जरूर हो रही है, लेकिन यह क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति को गहराई से प्रभावित करेगी। साथ ही यह वैश्विक परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन लाएगी।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]

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