तालिबान के दोबारा सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान की हर महिला बेबस और लाचार महसूस कर रही

अफगानिस्तान में परंपरा के जरिये लड़कियों के शोषण को रोकने की कोशिश न तो वहां की पुरानी सरकारों ने की और न ही यह मानवाधिकार मंचों पर चर्चा का विषय बनी है। इस परंपरा को महज एक परंपरा समझकर अभी तक नजरअंदाज किया जा रहा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 21 Sep 2021 01:40 PM (IST) Updated:Tue, 21 Sep 2021 01:45 PM (IST)
तालिबान के दोबारा सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान की हर महिला बेबस और लाचार महसूस कर रही
अफगानिस्तान की हर महिला बेबस और लाचार।

अनु जैन रोहतगी। अफगानिस्तान लंबे समय से पुरुष प्रधान समाज रहा है। पुरुषों और महिलाओं को मिलने वाले अधिकार, सम्मान और आजादी में जमीन आसमान का फर्क रहा है। हालांकि एक दौर ऐसा भी रहा जब लोकतांत्रिक सरकार बनने के बाद महिलाओं के हालात बदलने शुरू हुए थे। बाहर घूमने और हर क्षेत्र में काम करने की छूट मिली, लेकिन यह भी सच्चाई है कि यह मौका ज्यादातर शहरी इलाकों और पढ़े-लिखे परिवारों की लड़कियों-महिलाओं को ही मिला। ग्रामीण, गरीब और अशिक्षित परिवारों की लड़कियों की स्थिति पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। आज तालिबान के दोबारा सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान की हर महिला बेबस, लाचार और दयनीय महसूस कर रही है।

आज हम एक ऐसी परंपरा की बात कर रहे हैं जिसकी नींव अफगानिस्तान में बहुत पुरानी है, जिसे ‘बच्चा पोश’ के नाम से जाना जाता है। इसका मतलब है- लड़के की वेशभूषा में लड़की। ज्यादातर ऐसे परिवार जिनके घरों में कोई लड़का पैदा नहीं होता, वे अपनी किसी एक लड़की की परवरिश लड़के की तरह करते हैं। उन्हें तीन-चार साल की उम्र में लड़कों के कपड़े पहनाने शुरू कर दिए जाते हैं। लड़कों की तरह के बाल कटवाए जाते हैं। लड़कों जैसा चाल-चलन, बोलने आदि की ट्रेनिंग दी जाती है। मकसद होता है कि वह अपनी पहचान छुपाकर घर से बाहर जा सके और इस प्रकार परिवार की मदद कर सके। उन पर घर की लड़कियों को बाहर ले जाने की भी जिम्मेदारी होती है। उन्हें स्कूल भी पढ़ने के लिए भेजा जाता है। वह फुटबाल खेल सकता है, पतंग उड़ा सकता है, साइकिल चला सकता है, मतलब वह ऐसे सारे काम कर सकता है जिनको लड़कियों के करने पर पाबंदी है।

यह परंपरा थोड़े समय के लिए परिवारों को कुछ राहत दे देती है, लड़कियों को भी कुछ वर्षो तक आजादी महसूस होती है, लेकिन वास्तव में यह परंपरा लड़कियों को दुखदायी परिणाम देती है। इस परंपरा के तहत युवावस्था की दहलीज पर आते ही लड़का बनी लड़की को फिर से घर की चारदीवारी में कैद कर लिया जाता है। उसे लड़कियों के कपड़े थोप दिए जाते हैं, लड़कियों की तरह रहने को मजबूर किया जाता है। घर के सारे कामकाज करने के लिए दबाव बनाया जाता है। अचानक आए बदलाव को ये लड़कियां ङोल नहीं पाती हैं। ये लड़कियां अपने व्यक्तित्व को लेकर भ्रम में जीती हैं और मानसिक बीमारियों का शिकार भी हो जाती हैं।

स्वयंसेवी संस्था ‘वीमन फार अफगान वीमन’ की निदेशिका नाजिया नसीम मानती हैं कि अफगानिस्तान में पुरुषों के वर्चस्व और महिलाओं का दमन करने वाली सामाजिक, आíथक, राजनीतिक नीतियों ने ‘बच्चा पोश’ परंपरा को अपने फायदे के अनुरूप ढाल लिया है। अफगानितान में बहुत से इलाकों के साथ-साथ यह परंपरा पाकिस्तान के कुछप्रांतों में आज भी है। कहा जा रहा है कि अफगानिस्तान में तालिबान के आने के बाद महिलाओं के अधिकारों, आजादी पर लगाम लग गया है, बड़े पैमाने पर उनका शोषण शुरू हो गया है, लेकिन समझना यही है कि अफगानिस्तानी समाज में महिलाओं-लड़कियों का शोषण किसी न किसी रूप में सदियों से चला आ रहा है। बच्चा पोश परंपरा उसी शोषण की ही एक कड़ी है।

उपरोक्त तमाम परिस्थितियों को देखा जाए तो अफगानिस्तान में इस परंपरा के जरिये लड़कियों के शोषण को रोकने की कोशिश न तो वहां की पुरानी सरकारों ने की, और न ही यह मानवाधिकार मंचों पर चर्चा का विषय बनी है। इस परंपरा को महज एक परंपरा समझकर अभी तक नजरअंदाज किया जा रहा है। और अब तो तालिबान प्रशासन से ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि उनकी किसी पहल से इस परंपरा पर लगाम लगाई जा सकेगी।

[वरिष्ठ पत्रकार]

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