Maharashtra Politics: शिवसेना के कारण सत्ता से दूर रहने का छलका दर्द: देवेंद्र फडणवीस

भाजपा के विरुद्ध चली गई इस चाल से शिवसेना को मुख्यमंत्री पद भले हासिल हो गया हो लेकिन उसकी यह चाल 30 साल से कांग्रेस-राकांपा के विरुद्ध लड़ते आए उसके शिवसैनिकों को रास नहीं आई है। इसका नुकसान उसे भविष्य के स्थानीय निकाय चुनावों में उठाना पड़ सकता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 23 Aug 2021 09:21 AM (IST) Updated:Mon, 23 Aug 2021 04:41 PM (IST)
Maharashtra Politics: शिवसेना के कारण सत्ता से दूर रहने का छलका दर्द: देवेंद्र फडणवीस
देवेंद्र फडणवीस की भाजपा को अब वह दिन ज्यादा दूर नजर नहीं आ रहा है। इंटरनेट मीडिया

मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। जो बात देवेंद्र फडणवीस को अब समझ में आई है, वही बात महाराष्ट्र भाजपा के नेताओं को 30 साल पहले समझ में आ गई होती, तो आज महाराष्ट्र में भाजपा की रंगत कुछ और होती। फडणवीस ने हाल ही में स्वीकार किया है कि शिवसेना के साथ गठबंधन के कारण महाराष्ट्र में भाजपा अपना विस्तार नहीं कर सकी। अब जबकि शिवसेना राज्य के दो अन्य प्रमुख दलों कांग्रेस एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला रही है, तो भाजपा के पास अपने जनाधार विस्तार का सुनहरा अवसर है।

इतिहास के पन्ने पलटें तो फडणवीस की इस बात में सौ टके सच्चाई नजर आती है। वर्ष 1990 तक चुनाव आयोग के रिकार्ड में शिवसेना प्रत्याशियों का उल्लेख निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में होता था। जबकि भाजपा का पूर्व स्वरूप जनसंघ 1957 में ही एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में तब के संयुक्त महाराष्ट्र में 25 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़कर चार सीटें जीतने में सफल रहा था। वर्ष 1980 में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी से अलग होकर मुंबई में अपनी स्थापना (जनसंघ का नया रूप) के तुरंत बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी भाजपा कांग्रेस का मजबूत गढ़ समझे जानेवाले इस राज्य में 145 सीटों पर लड़कर 9.38 फीसद मतों के साथ 14 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। भाजपा के एक धड़े का स्पष्ट मानना है कि 1985 में शुरू हुए रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद गठबंधन के बावजूद शिवसेना को उसकी राजनीतिक हैसियत के अनुसार ही सीटें दी गई होतीं तो 1995 की गठबंधन सरकार में महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री भाजपा का बनता और उसे अपने संगठन विस्तार का अधिक मौका मिलता।

वर्ष 1989 में भाजपा ने लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों के लिए शिवसेना से गठबंधन करते समय तय किया था कि वह केंद्र की राजनीति में शिवसेना से सहयोग लेगी एवं महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना को सहयोग करेगी। इसी नीति के तहत तब लोकसभा के लिए भाजपा ने खुद 32 सीटें लेकर शिवसेना को 16 सीटें दीं और विधानसभा के लिए स्वयं 117 सीटें लेकर शिवसेना को 171 सीटें दीं। लेकिन 2014 तक शिवसेना ने लोकसभा के लिए भाजपा के कोटे से धीरे-धीरे उसकी छह ऐसी सीटें झटक लीं, जिन पर भाजपा के उम्मीदवार ही जीतते आए थे। लेकिन राज्य की राजनीति में भाजपा को एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दिया। शिवसेना-भाजपा गठबंधन के शिल्पकार कहे जानेवाले दिवंगत भाजपा नेता प्रमोद महाजन शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे के दबाव के आगे न सिर्फ हमेशा झुकते आए, बल्कि ठाकरे की नाराजगी का डर दिखाकर अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी झुकाते रहे। वर्ष 2006 में महाजन की हत्या के बाद इसी नीति को उनके बहनोई एवं महाराष्ट्र भाजपा के शीर्ष नेता गोपीनाथ मुंडे ने आगे बढ़ाया। जबकि संघ से करीबी रिश्ते रखनेवाले नितिन गडकरी शिवसेना के इस रवैये के सदैव विरोधी रहे। संघ से जुड़ा भाजपा का एक तबका सदैव मानता रहा है कि शिवसेना-भाजपा गठबंधन होने के आरंभिक दौर से ही शिवसेना को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया गया।

भाजपा का नया नेतृत्व इस स्थिति में बदलाव चाहता था। वह राज्य की राजनीति में शिवसेना से बराबरी की सीटें चाहता था, ताकि विधानसभा चुनाव में अधिक सीटें जीतकर महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री पद हासिल कर सके। जबकि मुख्यमंत्री पद शिवसेना किसी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहती थी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पहले की तुलना में करीब डेढ़ करोड़ मत ज्यादा मिले और उसका मत प्रतिशत 15 से उछलकर 34 पर पहुंच गया। इस मजबूती के आधार पर ही उसने छह माह बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव में शिवसेना से बराबरी की सीटों की मांग शुरू की। उसे महाराष्ट्र के कुछ छोटे दलों को भी गठबंधन में शामिल करना था। भाजपा का मत था कि शिवसेना और भाजपा राज्य की 288 विधानसभा सीटों में से 134-134 सीटें आपस में बांट लें और 20 सीटें सहयोगी दलों को देकर मजबूती से चुनाव लड़ा जाए। लेकिन शिवसेना को यह मंजूर नहीं था। आखिरकार 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया। भाजपा पहली बार कुछ छोटे दलों को साथ लेकर चुनाव लड़ी और 122 सीटों पर जीती। चुनाव बाद, लोगों का मानना था कि यदि भाजपा के साथ मिलकर लड़े दल भी अपने चुनाव चिह्न् के बजाय भाजपा के चिह्न् पर चुनाव लड़े होते तो भाजपा आसानी से बहुमत का आंकड़ा 145 छू लेती। दूसरी ओर लगभग सभी सीटों पर लड़ी शिवसेना 63 पर सिमटकर रह गई। उसकी घटती ताकत का एक और नमूना 2017 के मुंबई महानगरपालिका चुनाव में भी देखने को मिला, जहां भाजपा लंबी उछाल के साथ उससे सिर्फ दो सीटें पीछे रही।

वर्ष 2014 के विधानसभा एवं 2017 के मुंबई मनपा चुनाव में हुई अपनी दुर्गति देखकर ही शिवसेना ने 2019 के लोकसभा एवं विधानसभा, दोनों चुनावों में भाजपा के साथ मिलकर लड़ना ही उचित समझा। इसके नतीजे भी अच्छे मिले। लोकसभा में शिवसेना-भाजपा गठबंधन राज्य की 48 में से 41 सीटें जीतने में कामयाब रहा एवं विधानसभा चुनाव में भाजपा को 105 एवं शिवसेना को 56 सीटें मिलें। यानी शिवसेना-भाजपा आराम से गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में थे। लेकिन शिवसेना ने चुनाव के बाद भाजपा से गठबंधन तोड़ उसी कांग्रेस एवं राकांपा से गठबंधन कर लिया, जिसके विरुद्ध वह चुनाव लड़कर आई थी। ऐसा उसने सिर्फ मुख्यमंत्री पद के लालच में किया। कांग्रेस-राकांपा ने उसे मुख्यमंत्री पद दे भी दिया, क्योंकि ऐसा करके भी ये दोनों दल फायदे में हैं। राज्य के ज्यादातर महत्वपूर्ण मंत्रलय इन्हीं दोनों दलों के पास हैं। भाजपा के विरुद्ध चली गई इस चाल से शिवसेना को मुख्यमंत्री पद भले हासिल हो गया हो, लेकिन उसकी यह चाल 30 साल से कांग्रेस-राकांपा के विरुद्ध लड़ते आए उसके शिवसैनिकों को रास नहीं आई है। इसका नुकसान उसे भविष्य के स्थानीय निकाय चुनावों में उठाना पड़ सकता है। देवेंद्र फडणवीस की भाजपा को अब वह दिन ज्यादा दूर नजर नहीं आ रहा है।

[ब्यूरो प्रमुख, मुंबई]

chat bot
आपका साथी