Jagran Dialogues: मां-बाप के साथ बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है कोरोना महामारी का असर, जानें एक्सपर्ट से किन बातों का रखें ध्यान?

Jagran Dialogues कोरोना महामारी का असर बच्चों के साथ-साथ उनके पैरेंट्स के मेंटल हेल्थ पर भी काफी असर देखने को मिला है। दूसरी ओर बच्चे ऑनलाइन क्लासेज कर रहे हैं और आउटडोर गेम की जगह मोबाइल गेम ज्यादा खेल रहे हैं।

By Ruhee ParvezEdited By: Publish:Sun, 20 Jun 2021 12:53 PM (IST) Updated:Sun, 20 Jun 2021 02:45 PM (IST)
Jagran Dialogues: मां-बाप के साथ बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है कोरोना महामारी का असर, जानें एक्सपर्ट से किन बातों का रखें ध्यान?
मां-बाप के साथ बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है कोरोना महामारी का असर, ऐसे में क्या करें?

नई दिल्ली, प्रत्यूष रंजन। कोविड-19 पैनडेमिक की वजह से पिछले साल मार्च से अब तक छोटे बच्चों और युवाओं की स्कूली शिक्षा काफी प्रभावित हुई है। इससे बच्चों के साथ-साथ उनके पैरेंट्स के मेंटल हेल्थ पर भी काफी असर देखने को मिला है। दूसरी ओर, बच्चे ऑनलाइन क्लासेज कर रहे हैं और आउटडोर गेम की जगह मोबाइल गेम ज्यादा खेल रहे हैं। इससे उनका स्क्रीनटाइम भी काफी अधिक बढ़ा है। इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने के लिए जागरण डायलॉग्ज़ के माध्यम से, जागरण न्यू मीडिया के सीनियर एडिटर Pratyush Ranjan ने डॉ. यास्मीन अली हक़, जो भारत में यूनिसेफ की प्रतिनिधि हैं और डॉ. सौमित्र पथारे (निदेशक, मानसिक स्वास्थ्य कानून एवं नीति केंद्र, आईएलएस (पुणे)) से बातचीत की।

पेश हैं बातचीत के कुछ अंश:

कोविड-19 पैनडेमिक का बच्चों, उनके पैरेंट्स और युवाओं के मेंटल हेल्थ पर किस तरह का इम्पैक्ट देखने को मिला है?

डॉ. यास्मीन: जैसा की आपने कहा कि सभी बच्चों का रूटीन ख़राब हुआ है, वे लंबे समय से स्कूल नहीं जा पाए हैं, वे अपने दोस्तों या फिर दूसरी तरह से सोशलाइज़ नहीं कर पा रहे हैं, खेलने नहीं जा पा रहे हैं। इसके अलावा वे तनाव को अपने घर, अपने आसपास, टीवी और सोशल मीडिया पर महसूस कर सकते हैं। खासतौर से कोविड की दूसरी लहर के दौरान हमने अपने देश की जैसी तस्वीरे देखी, उसका असर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ा है, उनके अंदर भी वो डर है। इस महामारी ने हमें सिखाया कि बच्चों के तरफ ध्यान देना अब और भी ज़रूरी हो गया है। बच्चों को और उनके मानसिक स्वास्थ्य को समझने की ज़रूरत है। हर उम्र के बच्चे के लिए यह ज़रूरी है, छोटे बच्चों को स्क्रीन के सामने बिठा देना काफी नहीं है, उनसे बात करें, उन्हें मौजूदा हाल को समझने में मदद करें। बड़े बच्चे भी अपने परिवार को तनाव में देख खुद तनाव झेल रहे हैं, इसलिए उनसे बात करना ज़रूरी है।

रिसेंट टाइम तक मेंटल हेल्थ पर पब्लिकली शायद ही किसी तरह की चर्चा होती थी। इसमें किस तरह का चेंज आया है?

डॉ. सौमित्र: पहले हमें लगता थी कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानी दूसरे लोगों को होती है, हमें नहीं हो सकती। महामारी, लॉकडाउन और फिर दूसरी लहर में हमें समझ आया कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानी किसी को भी हो सकती है। हमें हो रही है, परिवार में और दोस्तों को भी, इसलिए अब इस बारे में चर्चा भी की जा रही है। 2016 में बैंग्लोर की एक संस्था ने एक सर्वे किया था, जिसमें उन्होंने पाया कि देश भर में 150 मिलियन लोग हैं, जो मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों से जूझ रहे थे और इसमें से 80-85 प्रतिशत लोगों का कोई ट्रीटमेंट नहीं हुआ था। यानी मेंटल हेल्थ की समस्या कोई नई नहीं है। अब भी जो चर्चा हो रही है, उसमें बच्चे नहीं हैं, वो बुज़ुर्गों के बारे में है कि वे अकेले पड़ गए हैं, या फिर जिन लोगों ने महामारी के दौर में अपनी नौकरी गंवाई। बच्चों के बारे में कम सोचा जा रहा है और बच्चों में यह डर ज़िंदगी भर के लिए भी रह सकता है। इसलिए बेहतर है कि हम इसके इलाज से ज़्यादा इससे बचाव पर काम करें।

पैनडेमिक की वजह से स्कूल बंद होने और पढ़ाई बाधित होने से बच्चों पर किस तरह का प्रभाव देखने को मिल रहा है?

डॉ. यास्मीन: महामारी की वजह से साल 2020 मार्च से स्कूल बंद हैं, आप खुद सोचिए जब आप छोटे थे तब अगर आप एक-डेढ़ साल तक स्कूल नहीं जाते तो कैसा लगता। स्कूलों का इतने लंबे समय तक बंद रहने से बच्चों और उनके परिवार पर बड़ा असर पड़ा है। स्कूल बंद होने से बच्चे कैसे चीज़ें सीखेंगे, एप्स और कई प्रोग्रेम शुरू हुए हैं, लेकिन इसकी पहुंच सभी बच्चों तक नहीं है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के बीच एक डिजिटल विभाजन जैसा हो गया है, साथ ही ये विभाजन लड़कों और लड़कियों के बीच भी है। इसके लिए हमने असम, बिहार, गुजरात, मध्यप्रदेश, केरल और उत्तर प्रदेश जैसे 6 राज्यों में 10 हज़ार बच्चों, उनके मां-बाप और टीचर्स पर एक स्टडी की थी। इसमें हमने पाया कि सिर्फ 60 प्रतिशत बच्चों के पास ही मोबाइल, टैब या लेपटॉप जैसी चीज़ें उपलब्ध हैं। इनमें से 80 प्रतिशत बच्चे महसूस कर रहे हैं कि वे ऑनलाइन क्लासेज़ से कुछ सीख नहीं पा रहे हैं। यानी वे स्कूल जाने से जितना सीख रहे थे, उतना अब नहीं सीख पा रहे हैं। इसके अलावा हमने देखा कि 10 प्रतिशत बच्चों के पास न टीवी, लेपटॉप, रेडियो, टैब, कम्यूटर, मोबाइल जैसी कोई चीज़ नहीं है। जिनके पास हैं उन्हें उसका सही तरीके से इस्तेमाल नहीं आता है यानी 45 प्रतिशत बच्चों को ऑनलाइन क्लासेज़ का फायदा नहीं पहुंच पा रहा है। इसके बाद प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के 33 प्रतिशत बच्चों ने महसूस किया कि उनका मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक स्वास्थ्य प्रभावित हुआ है।

आप पूरी बातचीत यहां  देख सकते हैं:

chat bot
आपका साथी