देश से हम और हमसे बनता है देश

स्वतंत्रता संग्राम की प्रज्ज्वलित यज्ञवेदी में असंख्य वीरों ने तन-मन-धन की आहुति देकर देश को मुक्ति दिलाई।

By JagranEdited By: Publish:Fri, 17 Sep 2021 09:06 PM (IST) Updated:Fri, 17 Sep 2021 09:06 PM (IST)
देश से हम और हमसे बनता है देश
देश से हम और हमसे बनता है देश

जासं, रांची : स्वतंत्रता संग्राम की प्रज्ज्वलित यज्ञवेदी में असंख्य वीरों ने तन-मन-धन की आहुति देकर भारत-माता को परतंत्रता के बंधनों से मुक्ति दिलाई थी। घर, परिवार, स्वार्थ एवं निजी सुखों को तिलांजलि देने वाले, एकता, बंधुता, राष्ट्र के लिए त्याग, समर्पण की धारा को भारत में प्रवाहित करने वाले उन बलिदानियों, राष्ट्र नायकों के स्वर्णिम सपनों को क्या हम साकार रूप देख रहे हैं ? उन्होंने स्वतंत्र भारत में जिन आदर्शों की स्थापना की, संकल्पना को लेकर संघर्ष किया था, क्या वे फलीभूत होकर हमारे आचरणों में हैं? उन्होंने देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने का जो आदर्श स्थापित किया था, हम उन आदर्शों को भूल गए। देश के लिए मर मिटना, लोभ-लालसा का त्याग करना, ईश्वर की आराधना से बढ़कर राष्ट्र की आराधना का चितन करना आदि आदर्श केवल किताबों में सिमट गए हैं। आज राजनीति स्वार्थसिद्धि का साधन है। धनसंचय का संकल्प है। वंशवाद है, जातिवाद की विकृति है, सत्ता का भीषण मद है। राष्ट्रवाद पर स्वार्थवाद हावी है। राजनीतिज्ञ धृतराष्ट्र हो गए हैं। ऐसी स्थिति केवल राजनीतिज्ञों में ही नहीं अपितु अधिकारियों, व्यापारियों के साथ आम जनता में भी है। देश से अपार अपेक्षाएं हैं किन्तु देने के लिए कुछ नहीं है। देश की आलोचना में आगे हैं। देशवासियों में न सौन्दर्य बोध है और न शक्तिबोध। देश में आन्दोलन होते हैं तो उग्रता के आवेश में राष्ट्रीय संपत्ति की तोड़फोड़ करते हैं। आग लगाते हैं। अपने थोड़े से लाभ के लिए देश के हजारों का नुकसान करने में जरा भी नहीं हिचकते क्योंकि हमारी मानसिकता में राष्ट्रवाद पर स्वार्थवाद प्रबल हो गया है। अपनी थोड़ी-सी पीड़ा से हम खुद को आहत अनुभव करते हैं। किन्तु लाखों की संख्या में कराहती देश की जनता की पीड़ा के प्रति हमारी संवेदना नहीं। ऐसी विकृत सोच से देश को अपूरणीय क्षति होती है। ऐसी घटनाएं हमारे स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों पर कुठाराघात के समान हैं। चिरन्तन जागरुकता ही स्वतंत्रता का मूल मंत्र है। इस कथन को हमेशा दिलों में संजो कर रखने की जरूरत है। जैसे एक-एक- ईंट जुडकर भवन का आकार देते हैं वैसे ही एक-एक नागरिक मिलकर राष्ट्र-भवन का निर्माण करते हैं। राष्ट्र की उन्नति और प्रगति में मात्र राजनेताओं या दल विशेष के शासन की ही नहीं, अपितु सभी की भूमिका होती है। मेरी दृष्टि में आम जनता की राष्ट्रहित की भावना एवं उसका व्यवहार राष्ट्र की प्रगति का आधार है। देश के मेहनतकश मजदूर, किसान, व्यापारी, छात्र, शिक्षक, अधिकारी, सेना, पुलिस आदि के समेकित प्रयास देश के विकास के वांछित कारक होते हैं। ये सभी स्वयं में मैं हैं किन्तु इनके प्रयास हम बनकर देश को आगे बढ़ाते हैं। हाथों की अंगुलियों से ही मुट्ठी बनती है। यदि अंगुलियों में मेल न हो, परस्पर सहयोग की भावना न हो तो हाथ रूपी देश की शक्ति एकत्रित नहीं होती। साथ ही अंगुलियां स्वयं में कमजोर होती हैं। अत: देश समृद्ध होगा तो देश के लोग भी समृद्ध होंगे। देश का हर नागरिक देश से बंधा होता है। देश के सम्मान से नागरिक का सम्मान और नागरिक के सम्मान से देश का गौरव बढ़ता है। देश का हर चेतन और अचेतन पदार्थ स्वयं में देश ही होता है। मैं अलग और देश अलग की अवधारणा संकीर्ण मानसिकता का द्योतक है। व्यक्ति और राष्ट्र के बीच अन्योनाश्रय संबंध होता है।

- एसके मिश्रा, प्राचार्य, एसआर डीएवी पुनदाग।

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