Pandit Deendayal Upadhyay: अंतिम कतार में खड़े व्यक्ति का उदय चाहते थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय

Pandit Deendayal Upadhyay अति सामान्य दिखने वाले इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिंतक कुशल संगठनकर्ता शिक्षाविद् राजनीतिज्ञ प्रखर वक्ता लेखक आदि अनेक प्रतिभाएं समाहित थीं। दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीति के कुशल शिल्पी तो थे ही इसके साथ ही वे भारतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति के श्रेष्ठ विचारक थे।

By Kanchan SinghEdited By: Publish:Sat, 25 Sep 2021 02:56 PM (IST) Updated:Sat, 25 Sep 2021 02:56 PM (IST)
Pandit Deendayal Upadhyay: अंतिम कतार में खड़े व्यक्ति का उदय चाहते थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय
दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीति के कुशल शिल्पी व रतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति के श्रेष्ठ विचारक थे।

रांची। भारतवर्ष में स्वतंत्रता से पहले और स्वतंत्रता के बाद सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में आमूल-चूल बदलाव लाने और क्रांति की मशाल जलाने वालों सपूतों की लंबी श्रृंखला है। उन्हीं में से एक सपूत थे नैतिक प्रेरणा के स्त्रोत रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय। उन्होंने अपने चिंतन और कार्य कुशलता से न केवल भारत माता का मस्तक ऊंचा किया बल्कि उनके द्वारा दिए गए एकात्म मानववाद का दर्शन आज पूरे विश्व को एकजुटता के सूत्र में बांध रहा है। दीनदयाल उपाध्याय के लिए राजनीति साध्य नहीं, साधन थी। सामाजिक जीवन में पिछड़ेपन के खात्मे की परम आवश्यकता उनके मानस में गहरी बैठी थी। उनका मानना था कि जब तक अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति का संपूर्ण विकास नहीं हो जाता, तब तक राष्ट्र के पुनर्निर्माण का स्वप्न अधूरा है।

अति सामान्य दिखने वाले इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिंतक, कुशल संगठनकर्ता, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, प्रखर वक्ता, लेखक आदि अनेक प्रतिभाएं समाहित थीं। दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीति के कुशल शिल्पी तो थे ही इसके साथ ही वे भारतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति के श्रेष्ठ विचारक थे। उन्होंने भारतीय परंपरा में एकात्म मानववाद जिसमें धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के चतुर्विध पुरुषार्थों की विवेचना कर भारतीय संस्कृति के नवस्वरुप को प्रतिष्ठित कर राष्ट्र को नई दिशा दिखलाने का कार्य किया है। दीनदयाल उपाध्याय के समग्र व्यक्तित्व एवं उनके चिंतन दृष्टि की व्यापकता को चंद पन्नों व शब्दों में समेट पाना नामुमकिन है। उनके विचारों, लेखों, चिंतनशीलता पर वर्षों शोध एवं चर्चा की जा सकती है।

दीनदयाल ने एकात्म मानववाद का सिद्वांत पेश किया। एकात्म मानववाद के प्रणेता का मानना था कि भारत को अगर विश्व में पहचान मिलेगी तो उसके मूल में भारतीय संस्कार व संस्कृति ही होगी। एकात्म मानववाद ही वर्तमान समस्याओं का निराकरण करने में संभव है। एकात्म मानववाद की परिभाषा उन्होंने काफी सरल और सहज भाषा में परिभाषित किया। कहा कि मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा यह चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है। जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है। तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटे को निकालने का प्रयास करता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामान्यतः मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है। मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को उन्होंने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी। इसीलिए दीनदयाल जी ने कहा कि मानव न केवल व्यक्ति है, मानव न केवल समाज है वरन मानव व्यक्ति और समाज की एकात्मता से पैदा होता है। व्यक्ति और समाज को बांट दे तो मानव मर जाता है। अस्तित्व में ही नहीं आता।

उन्होंने व्यक्ति से अधिक दल को, दल से अधिक सिद्धांत को, सिद्धांत से ज्यादा लोकतंत्र को और लोकतंत्र एवं राष्ट्र में गतिरोध होने पर राष्ट्र को महत्व दिया है। पंडित जी ने धर्म को भारत का प्राण और राष्ट्र के समेकित विकास के लिए भारतीय जनता की आकांक्षाओं में धर्मराज्य या रामराज्य को प्रत्येक भारतवासी की अंतरात्मा का मूलस्वर माना है। उनका संपूर्ण दृष्टिकोण एकदम सुस्पष्ट, प्रखर और उच्च आदर्शों एवं नीतियों पर आधारित है जो कि भारतीय जन की अंतरात्मा के भाव हैं। उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया। कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है। दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के नेता और भारतीय राजनीतिक एवं आर्थिक चिंतन को वैचारिक दिशा देने वाले पुरोधा थे।

पंडित दीनदयाल का मानना था कि हमेशा श्रेष्ठता को ग्रहण करना चाहिए अश्रेष्ठता को छोड़ देना चाहिए। वे पश्चिमी संस्कृति के घोर विरोधी थे। उनका कहना था कि पश्चिमी तकनीक को खुले दिल से अपनाओ लेकिन पश्चिमी संस्कृति से दूर रहो, क्योंकि इसमें मानव कल्याण के लिए बहुत-सी खामियां हैं। पश्चिमी संस्कृति और पश्चिमी विज्ञान, ये दोनों अलग-अलग चीजें हैं। हमें आगे बढ़ने के लिए पश्चिम के विज्ञान को स्वीकार करना चाहिए। संस्कृति भारत की ही सर्वश्रेष्ठ है। उनका मानना था कि हिंदू कोई धर्म या संप्रदाय नही, बल्कि भारत की संस्कृति है। उन्होंने एकात्म मानववाद से राजनीतिक और समाज से जोड़ने की बात कही।

समग्र और समावेशी विकास के लिए उनकी दृष्टि अतुलनीय थी। यह भारतीय संस्कृति और कुछ नहीं बल्कि हिंदू संस्कृति है जो राष्ट्र को एकसूत्रता में पिरोकर अखण्ड बनाए हुए है। यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता, जो हिन्दू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है, उसका दर्शन करना चाहिए, उसे मानदंड बनानी चाहिए। उन्होंने इसका प्रमाण देते हुए बतलाया है कि- इतिहास साक्षी है कि जहां से हिंदू संस्कृति और हिंदू धर्म कमजोर हुआ है वह हिस्सा भी देश से कट गया है। अपने जीवन को राष्ट्र पुननिर्माण के लिए समर्पित कर देना ही उनका एक मात्र अंतिम लक्ष्य था। उन्होंने कहा था कि भारत की सांस्कृतिक विविधता ही देश की वास्तविक शक्ति है। अपनी इसी शक्ति से हिन्दुस्तान एक दिन दुनिया का नेतृत्व करेगा।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा जिले के नगला चंद्रभान में हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय और माता का नाम रामप्यारी था। दीनदयाल सिर्फ तीन साल के थे तो उनके पिता का और सात वर्ष की आयु में उनकी माता का देहांत हो गया। एसडी कॉलेज, कानपुर से उन्होंने बी.ए. की पढ़ाई पूरी की। यही उनकी मुलाकात सुंदरसिंह भंडारी, बलवंत महासिंघे जैसे लोगों से हुई। इसके बाद उनमें राष्ट्र की सेवा करने का ख्याल आया और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के लिए काम करना शुरु कर दिया। संघ के लिए काम करते-करते वह खुद इसका एक हिस्सा बन गए और राष्ट्रीय एकता के मिशन पर निकल चले। दीनदयाल जी ने अपना सारा जीवन संघ को अर्पित कर दिया था।

दीनदयाल जी की कुशल संगठन क्षमता के लिए डा. श्यामप्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि अगर भारत के पास दो दीनदयाल होते तो भारत का राजनैतिक परिदृश्य ही अलग होता। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने साल 1951 में भारतीय जनसंघ पार्टी की स्थापना की। पंडित दीनदयाल भारतीय जनसंघ पार्टी के सह-संस्थापक थे। 1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन के बाद दीनदयाल के कंधों पर जनसंघ की सभी जिम्मेदारियां आ गई थीं। पार्टी को मजबूत बनाने में उन्होंने जी-जान लगा दिया। देश की जनता तक जनसंघ की राजनीतिक विचारधारा पहुंचाने में दीनदयाल का बहुत बड़ा योगदान रहा है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीति में नहीं आना चाहते थे लेकिन संघ के तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर के कहने पर राजनीति में प्रवेश किया। उनका मानना था कि वे राजनीतिक चालबाजी के लिए उपयुक्त नहीं हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय 1953 से 1968 तक भारतीय जनसंघ के नेता रहे।

आजादी के दशकों बाद आज हमारी व्यवस्था सरकार की नीतियों के चक्रव्यूह में ऐसे उलझ चुकी है कि उसमें से इसे निकालना काफी कठिन कार्य प्रतीत होता है। सरकार की गलत नीतियों ने इन 70 वर्षों में हमें इतना पंगु बना दिया है कि देश स्वच्छता के लिए भी प्रधानमंत्री पर आश्रित हैं। प्रधानमंत्री मोदी जब स्वच्छता की बात करते हैं तो दरअसल वो इस देश की सात दशक में तैयार नीतियों की व्यवस्था पर एक सवाल खड़ा करते हैं। अब क्या हम स्वच्छता के लिए भी सरकार पर निर्भर रहेंगे? ऐसे में समाजवाद और साम्यवाद जैसी नीतियां भारत के लिए अव्यावहारिक हैं, यह बात पंडित जी 50 साल पहले बता गए थे, जो आज सच साबित हो रही हैं। सामाजिक पंगुता के इस खतरे से बचने के लिए हमें दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन पर ही लौटना होगा। मानव के कल्याण का यही रास्ता शेष है, जो उजियारा फैला सकती है।

केंद्र सरकार की ज्यादातर योजनाएं-दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना, स्टार्ट-अप, स्टैंड-अप इंडिया, मुद्रा बैंक योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, आत्मनिर्भर भारत, वोकल फ़ॉर लोकल और मेक इन इंडिया जैसी योजनाएं एकात्म मानववाद सिद्धांत से प्रेरित हैं। सबका साथ, सबका विकास का नारा दीनदयाल जी के अंतिम व्यक्ति के उत्थान के विचार से प्रेरित है। समतामूलक समाज की कल्पना करते हुए उन्होंने कहा था कि वितरण इस प्रकार होना चाहिए कि रोटी, कपडा, मकान, पढ़ाई और दवाई ये पांच आवश्यकताएं प्रत्येक व्यक्ति की पूरी होनी ही चाहिए। जिसे आज लागू करने का कार्य भारतीय जनता पार्टी की सरकार कर रही है।

भारतीय राजनीति के अजात शत्रु का पर्याय माने जाने वाले इस महान चिंतक पंडित दीनदयाल जी की 11 फरवरी 1968 को हत्या हो गई। उनका शव यूपी के मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर मिला। उनकी मौत पर आज भी सवाल कायम हैं। वे गरीब, किसान, मजदूर और कतार के अंत में खड़े व्यक्ति के उत्थान की बात करते थे। इसीलिए दीनदयाल उपाध्याय के विचार न कहीं खो सकते हैं और न ही कभी अप्रासंगिक होंगे। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं। उनका एकात्म मानववाद और अंत्योदय का सिद्धांत व दर्शन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। दीनदयाल जी का दर्शन भारत की प्रकृति से जुड़ा दर्शन है। अतः इस दर्शन से सभी को जुड़ना होगा। जिस दिन इस दर्शन पर समग्रता से समूचा देश विचार करेगा उस दिन लोगों के मन में यह प्रश्न ही नहीं उठेगा कि दीनदयाल जी आज प्रासंगिक हैं या नहीं।

 

(नागेन्द्र नाथ त्रिपाठी)

क्षेत्रीय संगठन महामंत्री, झारखंड एवं बिहार, भारतीय जनता पार्टी।

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