Matribhasha Diwas: मातृभाषा और मां हैं एक दूसरे के पूरक... जनजातीय भाषाएं बेहद खास
Matribhasha Diwas मातृभाषा का मानव जीवन में विशेष महत्व है। मातृभाषा को बोलने से अपनापन का एहसास महसूस होता है। मातृभाषा और मां एक दूसरे के पूरक हैं। ग्लोबलाइजेशन के कारण मातृभाषा के ऊपर आधुनिकता और पश्चिमी सभ्यता का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ने लगा है।
रांची, जासं। Matribhasha Diwas मातृभाषा का मानव जीवन में विशेष महत्व है। मातृभाषा को बोलने से अपनापन का एहसास महसूस होता है। मातृभाषा और मां एक दूसरे के पूरक हैं। ग्लोबलाइजेशन के कारण मातृभाषा के ऊपर आधुनिकता और पश्चिमी सभ्यता का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ने लगा है। आधुनिक एवं तकनीकी शिक्षा ने भातृभाषा और संस्कृति के परिवर्तन में बहुमूल्य भूमिका निभाया है। झारखंड में मातृभाषा के रूप में नौ भाषाओं की पढ़ाई होती है।
इसमें पांच जनजातीय भाषाएं और चार क्षेत्रीय भाषाएं शामिल हैं। रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग में दो भाषाओं में ही स्थायी शिक्षक हैं। बाकी सात भाषाओं की पठन-पाठन और शोध संबंधित कार्यों का संपादन अनुबंधित शिक्षक करते हैं। लंबे समय से विमर्श जारी विलुप्त होती जनजातीय भाषाओं पर लंबे समय से विमर्श का दौर जारी है। लेकिन इस पर जितना काम होना चाहिए था वह हुआ नहीं। यहां की भाषाओं में दम है। यही कारण है कि कोरबा भाषा के संबंध में जब एक पारा शिक्षक ने 50 पृष्ठों की पुस्तक लिखी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में उसकी प्रशंसा की।
अब लुप्त होती भाषाओं की बातें देश के बाहर पहुंच रही है। लंदन यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर असुर जाति की भाषा को आर्काइव किया गया है। देश-दुनिया के लोग असुर भाषा के डॉक्यूमेंटेशन को लंदन यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर देख सकेंगे। जनजातीय शब्द तो एक है, लेकिन इनमें बहुत विविधताएं हैं। उनकी लिपि का डॉक्यूमेंटेशन नहीं हुआ है। श्रुति के आधार पर सब काम चल रहा है।
शिक्षकों की है कमी
पीढि़यां बदल रही हैं और लिखित भाषा शब्द नहीं है। ऐसे में इन पर काम करने, इनके डॉक्यूमेंटेशन व दस्तावेजीकरण जरूरी है। सरकार जनजातीय भाषाओं पर अभी तक ठोस काम नहीं की है। कहने के लिए रांची विश्वविद्यालय में जनजातीय विभाग है, लेकिन स्थाई शिक्षकों की संख्या न के बराबर है। जब तक इन भाषाओं की उपयोगिता से उसे जोड़ा नहीं जाएगा, दशा सुधरने वाली नहीं है।
डॉक्यूमेंटेशन सेंटर का उद्घाटन आज
डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय में रविवार को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस डॉक्यूमेंटेशन सेंटर फॉर इंटरनेशनल एंडेंजर्ड लैंग्वेज का उद्घाटन किया जाएगा। सेंटर का उद्घाटन राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू करेंगी। तुरी भाषा पर अध्ययन भी 21 फरवरी से शुरू किया जाएगा। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर इसे लंदन यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर अपलोड किया जाएगा।
कुल जनसंख्या 864 5042
झारखंड राज्य में अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 864 5042 है। वहीं इसकी संख्या 32 हैं जिनमें आदिम जनजाति 8 हैं। जनजातियों के नाम और उनकी जनसंख्या संथाल- 2410509, उरांव- 139 0459, मुंडा- 1049767, हो- 744 850, भूमिज- 181329, बेदिया- 83771, चिक बड़ाइक- 44427, करमाली- 56865, कोरा- 23192, गोराइत- 3957, बथुडी- 1114, गौंड- 52614, चेरो- 75540, ¨बझिया- 12428, खेरवार- 192024, बैगा- 2508, महली- 121174, लोहरा- 185004, खडिया- 164022, बंजारा- 374 और खोंड-116 हैं। आदिम जनजाति और जनसंख्या असुर- 10347, सॉरीया पहाड़िया- 31050, माल पहाड़िया- 155093, परहिया- 20786, कोरबा- 27177, बिरजिया- 5365, बिरहोर- 7514 और सबर जनजाति के 6004 लोग हैं।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
जिस भाषा में बच्चे बचपन में अपनी मां से बात करते हैं वही भाषा मातृभाषा है। अगर बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दी जाए तो बच्चे बेहतर समझेंगे। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा को जगह दिया गया है, जो सराहनीय कदम है। हरि उरांव, एचओडी, जनजातीय विभाग, रांची विवि
मातृभाषा से आधार मजबूत होता है। दो-तीन वर्ष में बच्चे अपनी भाषा सीखते और समझते हैं। 1960 के पहले लोग मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त करते थे। इस कारण विद्यार्थियों का आधार मजबूत रहता था। डा. सत्यनारायण मुंडा, कुलपति, डीएसमपीयू
मातृभाषा किसी देश संस्था और जगह के लिए अमृत के समान है। जैसे मां का दूध, वैसे ही मातृभाषा है। दुखद पहलू यह है कि मातृभाषा का महत्व हम लोग द्वारा नहीं दिया जाता है। जबकि सर्वप्रथम मातृभाषा का महत्व देना चाहिए। डा. उमेश नंद तिवारी, जनजातीय विभाग, रांची विवि
अपनी मातृभाषा से प्रगाढ़ प्रेम और आत्मीय लगाव के कारण अनुबंधित शिक्षक निष्ठापूर्वक कार्य करते हैं। इन शिक्षकों को समय से मानदेय का भुगतान भी नहीं किया जाता है। इसके वावजूद भी अपनी मातृभाषा और भाषा-संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन और विकास करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। डा. निरंजन महतो, जनजातीय विभाग, रांची विवि