मिथिला की लोक संस्कृति का पर्व कोजागरा

आश्विन की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस पूर्णिमा को कोजागरा भी मनाया जाएगा।

By JagranEdited By: Publish:Tue, 19 Oct 2021 08:34 AM (IST) Updated:Tue, 19 Oct 2021 08:34 AM (IST)
मिथिला की लोक संस्कृति का पर्व कोजागरा
मिथिला की लोक संस्कृति का पर्व कोजागरा

जासं, रांची: आश्विन की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस पूर्णिमा का मिथिला व बांग्ला समाज में विशेष महत्व होता है। इस रात दोनों समाज में कोजागरा पूजा मनाई जाती है। इस दिन सूर्यास्त के बाद मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। जहां मिथिलांचल में इस पूजा को कोजगरा के नाम से जाना जाता है। वहीं बांग्ला समुदाय में इसे लक्खी पूजा के रूप में मनाया जाता है। मिथिला समाज में इस दिन नवविवाहित वर के यहां लड़की वालों के घर से आए भार को बांटने की परंपरा है। वहीं बंगाली समाज में लोग सुबह से निर्जला व्रत रख संध्या को मां लक्ष्मी की विशेष पूजा करते हैं।

राजा जनक ने भगवान श्री राम के लिए किया था कोजगरा: मिथिलानी समूह की निशा झा ने बताया कि मिथिला की लोक संस्कृति में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसकी शुरुआत त्रेतायुग में राजा जनक द्वारा हुई थी। पहला कोजगरा भगवान श्री राम के लिए राजा जनक ने की थी। जनक राजा ने राम व सीता के लिए कोजगरा की पूजा कर अपने यहां से राम के लिए पान, केला, मखान, लड्डू आदि भार के रूप में भेजा था। तब से लेकर आज तक ये पर्व कोजगरा के रूप में मनाया जा रहा है। नवविवाहित वर-वधू की सुख-शांति के लिए की जाती है ये पूजा: निशा बताती हैं कि इस दिन घर में विवाह के जश्न जैसा माहौल रहता है। ये पूजा करने से नए वर-वधू के जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। इस दिन लड़की वालों के पक्ष से लड़के के परिवार के लिए कपड़ा, खाजा, चूड़ा, दही, मखाना, पान, बताशा आदि उपहार के रूप में दिया जाता है। इसे ही भार कहा जाता है। इसके बाद लड़के के पिताजी उस भार को चंगेरा (डाली) में भरकर पूरे मोहल्ले में बांटते हैं। जीजा अपने साले के साथ खेलता है पच्चीसी: वर को ससुराल से आए कपड़े पहनाने के बाद महिलाएं वर का चुमावन करती हैं। चुमावन के बाद वर अपने साले के साथ पच्चीसी का खेल खेलता है। इस खेल में हारने वाला जीतने वाले को उपहार देता है। इस दौरान मैथिली गीत-संगीत की महफिल भी सजती है। बंगाली समुदाय में निर्जला व्रत कर मां लक्ष्मी की होती है पूजा: बंगाली समुदाय में इस बार कोजागरा पूजा गुरुवार को मनाया जा रहा है। इस दिन विशेषकर महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं। व‌र्द्धमान कंपाउंड की रहनेवालीं नीलिमा मुखर्जी के मुताबिक हम सुबह से ही घर की साज-सज्जा में लग जाते हैं। इस दिन हम घर के आंगन में अल्पना बनाते हैं। व्रत के दौरान हम मां के लिए भोग बनाते हैं। भोग में खिचड़ी, खीर, हलवा-पूरी विशेष रूप से बनाई जाती है। इस पर्व को हम दीपावली की तरह मनाते हैं। पूरे घर को दीयों से जगमग करते हैं। विवाहिता को सिदूर व आलता लगाया जाता है: सारा दिन उपवास रखने के बाद संध्या में माता लक्ष्मी की पूजा होती है। पूजा के समापन के बाद महिलाओं में सिदूर व आलता दान किया जाता है। इसके घर आई विवाहिताओं को सिदूर व आलता लगाया जाता है। नीलिमा बताती हैं कि सिदूर व आलता सौभाग्य का प्रतीक है। ऐसे में महिलाओं के सौभाग्य के लिए उन्हें आलता व सिदूर लगाया जाता है। ऐसे करते हैं कोजागरा

पूजा करने के लिए पिता से मिली प्रेरणा : कोजागरा लक्ष्मी पूजा मेरे पिताजी स्वर्गीय प्रो. अमल चक्रवर्ती बड़े ही भक्ति और श्रद्धा के साथ किया करते थे। उन्हीं के द्वारा सिखाया यह संस्कार हमारे बच्चों को भी प्रेरित करता है। पिताजी कहते थे कि इस दिन विधिपूर्वक स्नान एवं उपवास रखकर जितेन्द्रिय भाव से पूजा करने से अच्छा फल देता है। मां लक्ष्मी के पदचिन्हों का रंगोली बनाना खास होता है। इस दिन बच्चों का उत्साह तो देखते बनता है।

-उज्जवल भास्कर, संचार प्रमुख, सेल रांची पूजा के बाद लक्ष्मी पाचाली का होता है पाठ: दुर्गा पूजा के 5 दिन बाद लक्खी पूजा मनाया जाता है। ये पूजा अधिकतर हर बंगाली परिवार में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। नवरात्र के नौ दिनों तक जिस स्थान पर मां दुर्गा की पूजा की जाती है। लक्खी पूजा के दिन उसी स्थान पर मां लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित कर पूजा की जाती है। मां की पूजा के साथ लक्ष्मी पाचाली का पाठ किया जाता है। इस पाठ को करने से घर में सुख-शांति व समृद्धि बनी रहती है।

- डॉ राणा सुभाशीष चक्रबर्ती, एचइसी, निदेशक, मार्केटिग एव प्राडक्शन विभाग

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