कोरोना के साये में त्योहार, प्रतिमा बनाने वाले मूर्तिकार असमंजस में

कोरोना के संक्रमण ने पर्व-त्योहारों की रौनक गायब कर दी है।

By JagranEdited By: Publish:Thu, 13 Aug 2020 02:36 AM (IST) Updated:Thu, 13 Aug 2020 06:17 AM (IST)
कोरोना के साये में त्योहार, प्रतिमा बनाने वाले मूर्तिकार असमंजस में
कोरोना के साये में त्योहार, प्रतिमा बनाने वाले मूर्तिकार असमंजस में

जागरण संवाददाता, रांची : कोरोना के संक्रमण ने पर्व-त्योहारों की रौनक गायब कर दी है। होली के बाद से अब तक पड़ने वाले सभी आयोजन डर के साये में गुजरे हैं। रामनवमी से लेकर जनमाष्टमी तक लोगों ने अपने घरों में ही समय गुजारा है। हालात कब तक ऐसे बने रहेंगे, कोई नहीं कह सकता। जन्माष्टमी के बाद अब गणेश, विश्वकर्मा फिर दुर्गा पूजा का आगमन होने वाला है। यह पर्व भी भय के माहौल में ही गुजरने वाला है। जन्माष्टमी के बाद मूर्तिवाले त्योहार आ रहे हैं। गणेश पूजा, विश्वकर्मा पूजा, दुर्गापूजा, लक्ष्मी पूजा, काली पूजा इन सब त्योहारों में मूर्तिकार प्रतिमाएं तैयार करते हैं। पंडाल बनते हैं। मेला लगाता है। अब तक सबकुछ असमंजस में है। पिछले कुछ दिनों में शहर में कोरोना संक्रमण के मामले काफी तेजी से बढ़े हैं। ऐसे में पूजा समितियों को मूर्तियां स्थापित करने की अनुमति मिलेगी या नहीं, इसको लेकर सब दुविधा में हैं। नहीं मिल रहे बड़ी प्रतिमाओं के आर्डर

हर वर्ष जुलाई के अंतिम हफ्ते में मूर्तियों के निर्माण का कार्य प्रारंभ हो जाता था। अगस्त का पहला सप्ताह गुजर गया। अब तक मूर्तिकारों को बड़ी प्रतिमाओं के निर्माण के ऑर्डर नहीं मिले हैं। मूर्ति कला केंद्र व शिल्प केंद्रों की रौनक गायब है। मूर्तिकार प्रतिमाएं रखने को लेकर सरकारी गाइडलाइन का इंतजार कर रहे हैं। फिलहाल कुछ मूर्तिकार घरों में रखी जाने वाली अपेक्षाकृत छोटी मूर्तियां बनाकर अपने रोजगार को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। कई मूर्तिकारों ने हालात को देखते हुए अब तक काम शुरू नहीं किया है। परिवार का भरण-पोषण चलाने के लिए दूसरे काम में लग गए हैं। ::::::::

कुछ ऐसी है मूर्तिकारों की व्यथा

कोकर में रहने वाले मूर्तिकार स्वपन दास बताते हैं कि हर वर्ष अगस्त के महीने में खाना खाने तक का समय नहीं रहता था। प्रतिमा के लिए मिट्टी बनाने का काम चलता रहता था। मूर्ति बनाने के लिए बंगाल से कलाकारों को आमंत्रित किया जाता था। जुलाई के अंत तक बड़ी प्रतिमाओं के ऑर्डर मिल जाते थे। कम से कम 100 मूर्तियां तीन और चार फीट की बनती थी। इतनी ही तीन फीट से कम की बनाई जाती थी। गणेश पूजन से लेकर काली पूजा तक बहुत काम होता था। लोग अपनी पसंद व घटनाक्रम से जोड़कर मूर्तियां बनवाते थे। इसकी अच्छी-खासी कीमत होती थी। अगस्त से अक्टूबर तक की कमाई से पूरे वर्ष घर का खर्च चल जाता था। इस बार भगवान जाने क्या होगा। साथ काम करने वाले आठ-दस मूर्तिकार खेती में लग गए हैं। थरपखना, डोरंडा, एचईसी, हरमू, रातू, सिरमटोली आदि इलाके में प्रतिमा निर्माण को लेकर हर वर्ष दिखने वाली रौनक गायब है। मूर्तिकारों के सामने आजीविका का संकट आ गया है।

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