Birsa Munda Death Anniversary: अंग्रेजों व मिशनरियों के खिलाफ बिरसा मुंडा ने किया था आंदोलन, पुण्‍यतिथि पर पढ़ें विशेष

Birsa Munda Death Anniversary Jharkhand News डोंबारी पहाड़ पर अंग्रेजों ने निहत्थे मुंडाओं पर गोलियों की बौछार कर दी। इस दौरान बिरसा वहां से निकलने में सफल रहे। 9 जून 1900 को रांची जेल में बिरसा की मौत संदिग्ध अवस्था में हो गई।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Publish:Tue, 08 Jun 2021 06:42 PM (IST) Updated:Wed, 09 Jun 2021 12:41 PM (IST)
Birsa Munda Death Anniversary: अंग्रेजों व मिशनरियों के खिलाफ बिरसा मुंडा ने किया था आंदोलन, पुण्‍यतिथि पर पढ़ें विशेष
Birsa Munda Death Anniversary, Jharkhand News 9 जून 1900 को रांची जेल में बिरसा की मौत हो गई।

रांची, जेएनएन। भारतीय स्‍वतंत्रता सेनानी और आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा ने एक अमिट छाप छोड़ी है। महज 24 साल छह माह और 21 दिन की जिंदगी पाने वाले बिरसा मुंडा की छोटी-सी जिंदगी में कई आयाम देखने को मिलते हैं। एक साधारण किसान परिवार में जन्मे बिरसा मुंडा कभी जर्मन मिशन में बपतिस्मा उपरांत दाऊद मुंडा बने। बांसुरी बजाते बकरियां चराई। गुरु आनंद पांडा के संरक्षण में रामायण-महाभारत की शिक्षा पाई। जड़ी-बूटी से लोगों का इलाज किया। तीर्थ-यात्रा की।

उन्होंने दस आज्ञाओं वाला बिरसाइत धर्म चलाया। अंततः शोषण के खिलाफ चलकद का मसीहा एक स्वतंत्रता सेनानी बन गया। अंग्रेजों और मिशनरियों के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन किया। उन्होंने ‘उलगुलान’ यानी ‘विद्रोह’ चलाया। लोगों का उन पर अटूट विश्वास था कि “उनका अंत नहीं, भगवान की मौत नहीं”। मार्च 1898 में सिंबूआ की पहाड़ी पर एक महासभा फागुन पर्व के अवसर पर आयोजित किया गया। लोगों ने अंग्रेज साहब का पुतला बनाकर होलिका दहन किया।

इस सभा में डुंडीगढ़ा के दुखन साय और रामगढ़ा के रतन साय ने बिरसा के गीत गाए। वह पूर्णमासी की रात थी। वहां बच्चे, युवा, औरत-मर्द सभी शामिल थे। बिरसा मुंडा धोती पहने हुए पिचूड़ी (मोटा कपड़ा का चादर) ओढ़े लोगों को संबोधित करते हुए कहा, “अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ अर्थात “हमारा देश हमारा राज” पाने के लिए संघर्ष शुरू करने का मैं ऐलान करता हूं। 15 नवंबर को आज भी इस जगह पर मेला लगता है।

24 दिसंबर 1899 को क्रांति शुरू हुआ। गिरजाघरों तथा थानों को निशाना बनाया गया। सरवदा चर्च में क्रिसमस की तैयारी चल रही थी। तीर से हमला किया गया। इसमें फादर हॉफमैन को तीर लगी, लेकिन मोटा ओवर कोट पहने होने के कारण तीर अंदर तक नहीं जा पाया। इसके बाद डोंबारी पहाड़ पर अंग्रेजों ने निहत्थे मुंडाओं पर गोलियों की बौछार कर दी। इस क्रम में बिरसा वहां से निकलने में सफल रहे। बिरसा के ऊपर 500 रुपये का इनाम रखा गया।

4 फरवरी 1900 को जराइकेला के रोगतो गांव में सोई हुई अवस्‍था में बिरसा को लोगों ने पकड़ लिया और बंदगांव ले आए। यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। सशस्त्र मुंडा बंदगांव पहुंचने लगे। बिरसा को खूंटी होते हुए रांची लाया गया। अदालत में मुकदमा चला। फैसला आने से पहले ही 9 जून 1900 को रांची जेल में बिरसा की मौत संदिग्ध अवस्था में हो गई। आनन-फानन में बिरसा को रांची के कोकर में डिस्टलरी पुल के पास अंतिम संस्कार कर दिया गया। महान स्वतंत्रता सेनानी ‘धरती आबा’ अमर हो गए और चलकद से संसद तक का सफर भारतीय इतिहास में सदा के लिए दर्ज हो गया।

(लेखक, डॉ. मोहम्मद जाकिर)

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