बड़ी कामयाबी: अब लकवा होने का लगाया जा सकेगा पूर्वानुमान, अमेरिकी पत्रिका में छपा रिम्‍स का शोध

Ranchi RIMS Research Jharkhand News अब जेनेटिक स्क्रीनिंग से लकवा होने की संभावना पता लगाई जा सकेगी। अब दवा बनाई जा रही है। अमेरिकन एकेडमी ऑफ न्यूरोलाॅजी में रिम्स का अनुवांशिक शोध छपा है। भारत में अब तक किसी ने लकवा पर शोध नहीं किया था।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Publish:Thu, 24 Jun 2021 03:52 PM (IST) Updated:Thu, 24 Jun 2021 04:28 PM (IST)
बड़ी कामयाबी: अब लकवा होने का लगाया जा सकेगा पूर्वानुमान, अमेरिकी पत्रिका में छपा रिम्‍स का शोध
Ranchi RIMS Research, Jharkhand News अब जेनेटिक स्क्रीनिंग से लकवा होने की संभावना पता लगाई जा सकेगी।

रांची, [अनुज तिवारी]। झारखंड के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स ने एम्स के साथ मिलकर देश का पहला ऐसा शोध किया है जिसका परचम अब अमेरिका में भी लहराया है। रिम्स के डाॅक्टरों ने अपने सात वर्ष के लंबे शोध में लकवा बीमारी के पूर्वानुमान के बारे में पता लगा लिया है। इसके साथ ही अब लकवा होने से बचाने के लिए इसकी दवा बनाई जा रही है, जो ना सिर्फ झारखंड बल्कि पूरे देश के लिए एक बड़ी सफलता मानी जा रही है।

अब लकवा जैसी असाध्य बीमारी के बारे में वक्त रहते पहले ही पता लगा लिया जाएगा कि उस व्यक्ति को यह बीमारी किस आयु व कब हो सकती है। इस शोध को करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से करीब छह अस्पतालों से लकवा मरीजों के सैंपल जुटाए गए और उसी सैंपल के माध्यम से शोध पूरा किया गया। इस शोध को अमेरिका के न्यूरोलाॅजी जनरल (न्यूरोलाॅजी ग्रीन) में जगह दी गई है। इसमें रिम्स रांची के द्वारा किए गए शोधकार्य का भी अलग से जिक्र किया गया है।

इस शोध में देश के एम्स और रिम्स को नीदरलैंड और इम्पेरियल कॉलेज लंदन का भी सहयोग मिला। रिम्स के बायोकेमिस्ट्री और न्यूरोलॉजी विभाग ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। शोधकार्य में रहे रिम्स निदेशक डाॅ. कामेश्वर प्रसाद ने बताया कि शोध में वैज्ञानिक डाॅ. अमित कुमार, डाॅ. अनुपा, डाॅ. कामेश्वर प्रसाद, डाॅ. गणेश चौहाण, डाॅ. सुरेंद्र कुमार मुख्य रूप से शामिल हैं। वहीं, एम्स के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रो डाॅ. अचल कुमार श्रीवास्तव ओर प्रो डाॅ. दिप्ता विभा का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

20 वर्ष की आयु में ही पता चल सकेगा लकवा के बारे में

शोध में यह पाया गया है कि 20 वर्ष की आयु में ही यदि स्क्रीनिंग करवाया जाए तो यह पता लगाया जा सकेगा कि 40 की उम्र या उसके बाद उसे लकवा होगा या नहीं। लकवा होने की बात यदि पुष्ट होती है तो उसे पहले से ही संयम बरतने और संबंधित दवाएं दी जा सकेगी ताकि उसे बाद में लकवा ना हो सके। लकवा का अनुवांशिक अध्ययन कर शोध करने वाले डाॅ. अमित कुमार बताते हैं कि शोध के दौरान जेनेटिक मार्कर के बारे में पता चला, जिसकी अभी तक खोज नहीं हो सकी थी।

इस मार्कर में क्रोमोजोम तीन, एक, चार और 16 ऐसा पाया गया जिसमें दूसरे सामान्य लोगों के क्रोमोजोम की तुलना में कई बदलाव दिखे। यही बदलाव बढ़ती उम्र के साथ और एक्टीव होता है और लकवा का बड़ा कारण बनता है। इसे वक्त रहते अगर पहचान लिया जाए तो दवाओं के साथ इस बीमारी से बचा जा सकेगा। सिर्फ चार क्रोमोजोम की जांच कराने में पैसे भी कम खर्च होंगे। अनुमान लगाया जा रहा है कि इसकी स्क्रीनिंग में करीब हजार रुपये तक का खर्च आएगा।

3.2 मीलियन में सिर्फ चार क्रोमोजोम ही हैं लकवा के कारण

लकवा का मुख्य कारण अभी तक सिर्फ चार क्रोमोजोम पर ही पाया गया है। करीब 3.2 मीलियन क्रोमोजोम की जांच करने पर यही चार क्रोमोजोम लकवा के कारक बने हैं। शोधकर्ता डाॅ. लखन मांझी बताते हैं कि लकवा का मुख्य कारण हाइपरटेंशन वाले मरीजों में ही अधिकतर देखा गया है। इसके अलावा अनुवांशिक कारण से भी लकवा होता है। लेकिन अभी तक यह पता नहीं चल पाया था कि इसमें जो ये चार क्रोमोजोम हैं, उसकी भूमिका सबसे अहम है। इसका इलाज अगर वक्त रहते कर लिया गया तो लकवा की होने की संभावना को रोका जा सकेगा। इस बीमारी को पहले ही पकड़ कर उसे दूर करने की पहल की गई है जो काफी सार्थक साबित हुई और आज पूरी दुनिया इस शोध को जान पाई है जो ना सिर्फ झारखंड बल्कि पूरे देश के लिए गौरव का विषय बन चुका है।

क्यों जरूरत पड़ी शोध की

भारत में अनुवांशिक रोगियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। दूसरे विकसित देशों की तुलना में भारत में 50-55 आयु की उम्र में लाेग अनुवांशिक रोग से पीड़ित हो रहे हैं। इसमें लकवा जैसी समस्या काफी अधिक है। शोधकर्ता डाॅ. अमित बताते हैं कि दूसरे देश में स्वास्थ्य को लेकर लोग अधिक सजग हैं और वहां 65 वर्ष के बाद अनुवांशिक कारण से लोग रोग से ग्रसित होते हैं। भारत में प्रति वर्ष करीब 20 लाख लोग लकवे का शिकार होते हैं। इन सभी चीजों का आकलन करने के बाद जेनेटिक कारणों को खोजने के लिए शोध किया गया। मालूम हो कि आज झारखंड में ही करीब तीन लाख लकवा के एक्टीव मरीज हैं, जो किसी ना किसी रूप में लकवा से लाचार हो चुके हैं।

ऐसे समझें शोध को

डीएनए को मॉलिक्यूल से क्लासिफाई करते हैं। एक डीएनए में 3.2 करोड़ से तीन गुना अधिक मॉलिक्यूल होते हैं। शोध में डीएनए के यही मॉलिक्यूल (क्रोमोजोम) की पोजीशन में गड़बड़ी पाई गई। इससे पता चला कि इन्हीं कारणों से लकवा होने का खतरा होता है। इन्हीं करोड़ों मॉलिक्यूल में से चार ऐसे क्रोमोजोम मिले हैं जो सही पोजीशन में नहीं पाए गए या जो जिसने अपने स्वरूप को बदल लिया था। शोधकर्ताओं के अनुसार इन क्रोमोजोम के सीक्वेंस सही होने पर ही हमारा शरीर सही से काम करता है। सीक्वेंस में गड़बड़ी होने से प्रोटीन (जिन) का फंक्शन चेंज हो जाता है और भविष्य में लकवा का खतरा बढ़ जाता है। इसे अब वक्त रहते दवा के माध्यम से रोका जा सकता है।

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