एकात्म मानववाद को केंद्र में रखकर हो सकता है देश का सर्वांगीण विकास

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिमी ‘पूंजीवादी व्यक्तिवाद’ एवं ‘मार्क्सवादी समाजवाद’ दोनों का विरोध किया लेकिन आधुनिक तकनीक एवं पश्चिमी विज्ञान का स्वागत किया। ये पूंजीवाद एवं समाजवाद के मध्य एक ऐसी राह के पक्षधर थे जिसमें दोनों प्रणालियों के गुण मौजूद हों। उनके अतिरेक एवं अलगाव जैसे अवगुण न हो।

By Kanchan SinghEdited By: Publish:Sat, 25 Sep 2021 02:36 PM (IST) Updated:Sat, 25 Sep 2021 02:36 PM (IST)
एकात्म मानववाद को केंद्र में रखकर हो सकता है देश का सर्वांगीण विकास
पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक दार्शनिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री एवं राजनीतिज्ञ थे।

रांची । पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक दार्शनिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री एवं राजनीतिज्ञ थे। उनके द्वारा प्रस्तुत दर्शन को ‘एकात्म मानववाद’ कहा जाता है। जिसका उद्देश्य एक ऐसा ‘स्वदेशी सामाजिक-आर्थिक मॉडल’ प्रस्तुत करना था जिसमें विकास के केंद्र में मानव हो, संपूर्ण राष्ट्र हो। भारत को देश से बहुत अधिक आगे बढ़कर एक राष्ट्र के रूप में और इसके निवासियों को नागरिक नहीं अपितु परिवार सदस्य के रूप में मानने के विस्तृत दृष्टिकोण का अर्थ है एकात्म मानववाद। मानवीयता के उत्कर्ष की स्थापना यदि किसी राजनैतिक सिद्धांत में हो पाई है तो वह है पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय का एकात्म मानववाद का सिद्धांत!

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिमी ‘पूंजीवादी व्यक्तिवाद’ एवं ‘मार्क्सवादी समाजवाद’ दोनों का विरोध किया, लेकिन आधुनिक तकनीक एवं पश्चिमी विज्ञान का स्वागत किया। ये पूंजीवाद एवं समाजवाद के मध्य एक ऐसी राह के पक्षधर थे जिसमें दोनों प्रणालियों के गुण तो मौजूद हों। लेकिन उनके अतिरेक एवं अलगाव जैसे अवगुण न हो। उपाध्याय के अनुसार पूंजीवादी एवं समाजवादी विचारधाराएं केवल मानव के शरीर एवं मन की आवश्यकताओं पर विचार करती है इसलिए वे भौतिकवादी उद्देश्य पर आधारित हैं। जबकि मानव के संपूर्ण विकास के लिए इनके साथ-साथ आत्मिक विकास भी आवश्यक है। साथ ही, उन्होंने एक वर्गहीन, जातिहीन और संघर्ष मुक्त सामाजिक व्यवस्था की कल्पना की थी।

मनुष्य की भौतिक आवश्यकता व अन्य आवश्यकताओं को पश्चिम की दृष्टि में सुख माना गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ और काम पर धर्म का नियंत्रण रखना आवश्यक है और धर्म के नियंत्रण से ही मोक्ष पुरुषार्थ प्राप्त हो सकता है। यद्यपि भारतीय संस्कृति में मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है। तो भी अकेले उसके लिए प्रयत्न करने से मनुष्य का कल्याण नहीं होता। वास्तव में अन्य पुरुषार्थ की अवहेलना करने वाला कभी मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता।

इसी प्रकार धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है किंतु 3 अन्य पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक व पोषक हैं। यदि व्यापार भी करना है तो मनुष्य को सदाचरण, संयम, त्याग, तपस्या, अक्रोध, क्षमा, धृति, सत्य आदि धर्म के विभिन्न लक्षणों का निर्वाह करना पडेगा। बिना इन गुणों के पैसा कमाया नहीं जा सकता। व्यापार करने वाले पश्चिम के लोगों ने कहा कि ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी अर्थात सत्य निष्ठा ही श्रेष्ठ नीति है। भारतीय चिंतन के अनुसार ऑनेस्टी इज नॉट ए पॉलिसी बट प्रिसिंपल अर्थात सत्यनिष्ठा हमारे लिए नीति नहीं है बल्कि सिद्धांत है। यही धर्म है और अर्थ और काम का पुरुषार्थ धर्म के आधार पर चलता है। राज्य का आधार भी हमने धर्म को ही माना है। अकेली दंडनीति राज्य को नहीं चला सकती।

समाज में धर्म न हो तो दंड नहीं टिकेगा। काम पुरुषार्थ भी धर्म के सहारे सधता है। भोजन उपलब्ध होने पर कब, कहां, कितना कैसा उपयोग हो यह धर्म तय करेगा। अन्यथा रोगी यदि स्वस्थ व्यक्ति का भोजन करेगा, स्वस्थ व्यक्ति ने रोगी का भोजन किया तो दोनों का अकल्याण होगा। मनुष्य की मनमानी रोकने को रोकने के लिए धर्म सहायक होता है और धर्म का इन अर्थ और काम पर नियंत्रण को सही माना गया है। पंडित दीनदयाल जी के अनुसार धर्म महत्वपूर्ण है परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता है। एक सुभाषित आता है- बुभुक्षितरू किं न करोति पापं, क्षीणा जनारू निष्करुणारू भवन्ति. अर्थात भूखा सब पाप कर सकता है। विश्वामित्र जैसे ऋषि ने भी भूख से पीड़ित होकर शरीर धारण करने के लिए चांडाल के घर में चोरी कर कुत्ते का जूठा मांस खा लिया था।

हमारे यहां आदेश में कहा गया है कि अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि वह धर्म का द्योतक है। इसी तरह दंडनीति का अभाव अर्थात अराजकता भी धर्म के लिए हानिकारक है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ का अभाव के समान अर्थ का प्रभाव भी धर्म का घातक होता है। जब व्यक्ति और समाज में अर्थ साधन न होकर साध्य बन जाएं तथा जीवन के सभी विभुतियां अर्थ से ही प्राप्त हों तो अर्थ का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और अर्थ संचय के लिए व्यक्ति नानाविध पाप करता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास अधिक धन हो तो उसके विलासी बन जाने की अधिक संभावना है।

पश्चिम में व्यक्ति की जीवन को टुकडे-टुकडे में विचार किया जबकि भारतीय चिंतन में व्यक्ति के जीवन का पूर्णता के साथ संकलित विचार किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार हमारे चिंतन में व्यक्ति के शरीर, मन बुध्दि और आत्मा सभी का विकास करने का उद्देश्य रखा है। उसकी सभी भूख मिटाने की व्यवस्था है, किन्तु यह ध्यान रखा कि एक भूख को मिटाने के प्रयत्न में दूसरी भूख न पैदा कर दें और दूसरे के मिटाने का मार्ग न बंद कर दें इसलिए चारों पुरुषार्थों को संकलित विचार किया गया है। यह पूर्ण मानव तथा एकात्ममानव की कल्पना है जो हमारे आराध्य तथा आराधना का साधन दोंनों ही हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिम के खंडित अवधारणा के विपरीत एकात्म मानव की अवधारणा पर जोर दिया है आज आवश्यकता इस बात की है कि उपाध्याय जी के इस चिंतन को व्यवहारिक स्तर पर उतारने का प्रयास किया जाए।

एकात्म मानववाद की वर्तमान प्रासंगिकता

आज विश्व की एक बड़ी आबादी गरीबी में जीवन यापन कर रही है। विश्वभर में विकास के कई मॉडल लाए गए लेकिन आशानुरूप परिणाम नहीं मिला। अतः दुनिया को एक ऐसे विकास मॉडल की तलाश है जो एकीकृत और संधारणीय हो। एकात्म मानववाद ऐसा ही एक दर्शन है जो अपनी प्रकृति में एकीकृत एवं संधारणीय (integral and Sustainable) है। एकात्म मानववाद का उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज की आवश्यकता को संतुलित करते हुए प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करना है। यह प्राकृतिक संसाधनों के संधारणीय उपभोग का समर्थन करता है जिससे कि उन संसाधनों की पुनः पूर्ति की जा सके।

एकात्म मानववाद न केवल राजनीतिक बल्कि आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता को भी बढ़ाता है। यह सिद्धांत विविधता को प्रोत्साहन देता है अतः भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए यह सर्वाधिक उपयुक्त है। एकात्म मानववाद का उद्देश्य प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करना है एवं ‘अंत्योदय’ अर्थात समाज के निचले स्तर पर स्थित व्यक्ति के जीवन में सुधार करना है। दो धोती, दो कुर्ते और दो वक्त का भोजन ही मेरी संपूर्ण आवश्यकता है। इससे अधिक मुझे और क्या चाहिए। इस वाक्य में दीनदयाल जी के एकात्मवाद और अंत्योदय का मूलमंत्र और दर्शन को आसानी से समझा जा सकता है। अंत्योदय शब्द में संवेदना है, सहानुभूति है, प्रेरणा है, साधना है। दीनदयाल जी कहा करते थे कि ‘जब तक अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति का उदय नहीं होगा, भारत का उदय संभव नहीं है। अंत्योदय के मूल में दीनदयाल जी ने कोई चुनावी लाभ नहीं देखा क्योंकि उनका जीवन स्वतः अंत्योदय से प्रेरित था। वह समाज की उन्नति के लिए अपनी हड्डी गलाने में विश्वास रखते थे। उनके शब्द और आचरण में असमानता नहीं थी।

दीनदयाल जी के अंत्योदय का आशय राष्ट्रश्रम से प्रेरित था। वह राष्ट्रश्रम को राष्ट्रधर्म मानते थे। वे किसी संप्रदाय या वर्ग की सेवा का नहीं बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की सेवा का पक्षधर थे। उनका मानना था कि हिमालय और हिंद महासागर से परिवेष्ठित भारत खंड में जब तक हम एकरसता, कर्मठता, समानता, संपन्नता, ज्ञानवत्ता, सुख और शक्ति की संपत्-जाह्नवी (सात गंगा) का पुण्य प्रभाव नहीं ला पाते, तब तक हमारा भगीरथ साधना पूरा नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंत्योदय शब्द की अपनी गरीबोन्मुखी योजनाओं से उसे साकार करने की दिशा में एक नहीं अनेक साहसिक निर्णय लिए हैं, केंद्र सरकार कई जनहित की योजनाएं चला रही है। मोदी सरकार में दीनदयाल जी के अंत्योदय का सपना धीरे-धीरे साकार हो रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानववाद और अंत्योदय का दर्शन भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में सदा प्रासंगिक रहेगा।

धर्मपाल सिंह, संगठन महामंत्री भाजपा, झारखंड।

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