200 साल पहले लोहा गला हथियार बनाते थे असुर, समुदाय का दावा, उन्हीं की पद्धति टाटा ने अपनाई

झारखंड की असुर जनजाति पिछले दो सौ वर्षो से वैज्ञानिक पद्धति से लोहा गलाकर उससे औजार बना रही है। असुरों की इसी पद्धति को टाटा स्टील ने भी अपनाया है।

By JagranEdited By: Publish:Sat, 17 Nov 2018 06:00 AM (IST) Updated:Sat, 17 Nov 2018 06:00 AM (IST)
200 साल पहले लोहा गला हथियार बनाते थे असुर, 
समुदाय का दावा, उन्हीं की पद्धति टाटा ने अपनाई
200 साल पहले लोहा गला हथियार बनाते थे असुर, समुदाय का दावा, उन्हीं की पद्धति टाटा ने अपनाई

जागरण संवाददाता, जमशेदपुर : झारखंड की असुर जनजाति पिछले दो सौ वर्षो से वैज्ञानिक पद्धति से लोहा गलाकर उससे औजार बना रही है। असुरों की इसी पद्धति को टाटा स्टील ने भी अपनाया है। यह दावा शुक्रवार को टाटा स्टील द्वारा आयोजित जनजातीय सम्मेलन 'संवाद' के दूसरे दिन ट्राइबल कल्चर सेंटर (टीसीएस) में असुर जनजाति के विमल असुर ने किया। संवाद के तहत शुक्रवार को टीसीएस में आदिवासी समुदाय और उसकी पहचान पर परिचर्चा का आयोजन किया गया था। इसी परिचर्चा में उन्होंने असुरों की पद्धति की चर्चा की। उन्होंने बताया कि असुरों के पूर्वज आदिम काल से ही सखुआ के पेड़ को सुखाकर उसका उपयोग कोल के रूप में करते थे और उसी से लोहा गलाने के लिए 'दिरी-टुकू' करते थे। उन्होंने कहा कि हमें खुशी है कि हमारी पद्धति को टाटा ने उद्योग के रूप में विस्तार किया लेकिन दुख भी है कि हमारा नाम कहीं भी इतिहास के पन्नों पर नहीं है। वहीं, उन्होंने बताया कि आज भी हमारे समुदाय के लोग सुदूर जंगल व पहाड़ पर निवास करते हैं और सामाजिक कुरोतियों से घिरे हुए हैं, लेकिन वर्ष 2007 से हमने अपने गांव में बदलाव की पहल की। इस दौरान उनके गांव के लोगों ने देशी-विदेशी कंपनियों द्वारा माइनिंग कर बॉक्साइड के उत्खनन करने और उनकी जमीन छीने जाने पर चिंता जाहिर की।

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इंडोनेशिया के नृत्य दल से बांधा समां

इंडोनेशिया के पपुआ आईलैंड से धानी समुदाय से नियाज व अल्फियान ने अपने पारंपरिक परिधान, चांवर और जानवरों के हड्डियों से आभूषण धारण कर नृत्य प्रस्तुत किया। नियाज बताते हैं कि कृषि, शिकार और मछली मारकर वे अपना जीवनयापन करते हैं। लेकिन उन्होंने चिंता जाहिर की कि वैश्रि्वक दौर में उनके समुदाय के युवा आधुनिकता के पीछे दौड़ लगाकर अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूल रहे हैं। नियाज बताते हैं कि उनके समुदाय द्वारा हनवेने नाम से एक अभियान चला रहे हैं जिसका उद्देश्य युवाओं को अपनी संस्कृति से जोड़ना और उन्हें शिक्षित करना भी है।

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हमारे हक को दया के रूप में दे रही सरकार

कर्नाटक के बेट्टा कुरूबा समुदाय के काला कल्लकर बताते हैं कि आदिवासियों के हक और अधिकार को सरकार दया के रूप में उन्हें दे रही है। जबकि जीवन जीने के लिए ये समुदाय के मौलिक अधिकार हैं। अपने समुदाय के पारंपरिक गीत के द्वारा उन्होंने अपनी व्यथा बताई। कहा कि हम चौराहे पर खड़े हैं और सरकार से अपना हक और अधिकार के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। वे बताते हैं कि कर्नाटक में एक समुदाय काफी मजबूत है जो उनकी जमीन पर कब्जा जमा रहे हैं। इसलिए उनके समुदाय के 40 गांवों के तीन-तीन लोगों को वे प्रशिक्षण दे रहे हैं। ये प्रशिक्षित युवा ही उनके लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं और पुलिस से बातचीत का तौर-तरीका सीख रहे हैं। वे बताते हैं कि प्रशिक्षण से ज्यादा समुदाय को मिलने वाला युवाओं का नेतृत्व हमारे लिए महत्वपूर्ण है।

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