RAF -106 बटालियन आज मना रही शौर्य दिवस, जानिए सहायक कमांडेंट आरएन मल्लिक के पराक्रम की कहानी उन्हीं की जुबानी

Shaurya Divas रैफ -106 बटालियन के सहायक कमांडेंट आरएन मल्लिक पराक्रम के लिए तीन बार राष्ट्रपति पराक्रम पदक से सम्मानित हो चुके हैं। इन्हें 26 जनवरी 2018 15 अगस्त 2018 और 15 अगस्त 2019 को यह सम्मान मिला। आइए जानिए उनकी कहानी।

By Rakesh RanjanEdited By: Publish:Thu, 08 Apr 2021 05:54 PM (IST) Updated:Fri, 09 Apr 2021 09:06 AM (IST)
RAF -106 बटालियन आज मना रही शौर्य दिवस, जानिए सहायक कमांडेंट आरएन मल्लिक के पराक्रम की कहानी उन्हीं की जुबानी
रैफ की 106 बटालियन के सहायक कमांडेंट आरएन मल्लिक।

जमशेदपुर, जासं। नौ अप्रैल 1965 में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक छोटी सी टुकड़ी ने गुजरात में पाकिस्तान के 3500 सैनिकों को कच्छ के रन में धूल चटा दी थी। उसमें पाकिस्तान के 34 सैनिक मारे गए थे और चार बंदी बना लिए गए थे।

विजय की इस खुशी को सीआरपीएफ प्रतिवर्ष नौ अप्रैल को शौर्य दिवस मनाती है। इस बार भी यह दिवस शुक्रवार को सुंदरनगर स्थित रैफ (रैपिड एक्शन फोर्स) की 106 बटालियन धूमधाम से मनाएगी। संयोग की बात है कि इस बटालियन के सहायक कमांडेंट आरएन मल्लिक भी ऐसे ही पराक्रम के लिए तीन बार राष्ट्रपति पराक्रम पदक से सम्मानित हो चुके हैं। इन्हें 26 जनवरी 2018, 15 अगस्त 2018 और 15 अगस्त 2019 को यह सम्मान मिला।

आइए, सुनें आरएन मल्लिक के पराक्रम की एक कहानी, उन्हीं की जुबानी

22 अप्रैल 2018 की बात है। शाम करीब पांच बजे खबर मिली कि तराल इलाके के गुटंगू पहाड़ियों में आतंकवादियों का मूवमेंट देखा गया है। हम ऑपरेशन के लिए तैयार हो ही रहे थे कि अचानक सूचना मिली कि खबर गलत है। रात 12.30 बजे खबर आई है कि खबर सही है। हमें अभी निकलना है। हम लोग तराल चौक पहुंचे ही थी कि सूचना मिली, वापस आ जाओ। हम कैंप में वापस आ गए। सुबह पांच बजे जम्मू-कश्मीर पुलिस के एसआइजी कमांडर उप निरीक्षक संजीव देव सिंह का फोन आया कि पांच मिनट में निकलना है।

हम सुबह 5.45 बजे अपनी टीम के साथ गुटंगू पहाड़ी पहुंचे। वहां मेरी बात आरआर आर्मी के मेजर से हुई। सर ने बताया कि तीन चार जैश ए मोहम्मद के आतंकवादी पहाड़ों की चोटी पर हाइडआउट बना कर छिपे हैं और ऊपर चढ़ने नहीं दे रहे हैं। ऊपर से लगातार ग्रेनेड से हमला कर रहे हैं। झाड़ियां इतनी गहरी हैं कि बढ़ा नहीं जा रहा है। आर्मी की एक टीम ऊपर हाइडआउट को घेरने की कोशिश कर रही है। मेजर ने कहा कि ऊपर संभल कर चलना, क्योंकि लगातार ऊपर से फायरिंग हो रही है। मैं जैसे ही थोड़ा ऊपर चढ़ा कि हमारे ऊपर गोलियों की बौछार होने लगी। मैंने अपनी टीम को आदेश दिया कि हम पहाड़ियों के पीछे की ओर उनके पास जाएंगे। हम जैसे ही पहाड़ों के पीछे से चढ़ने लगे, ऊपर से नीचे उतरती हुई आर्मी की टुकड़ी नजर आई, स्ट्रेचर पर आर्मी का जवान लाया जा रहा था। सिपाही अजय कुमार दुश्मनों के हमले में गंभीर रूप से घायल हो गए थे, बाद में वीरगति को प्राप्त हो गए।

बड़ी मुश्किल से आतंकवादियों की गोलियों से बचते हुए पहाड़ों के पीछे से हाइडआइट के पास पहुंचा। वहां आरआर के कर्नल से मिला। हम पेड़ की आड़ लेकर बैठ गए। अब हम आतंकवादियों से कुल 10 मीटर की दूरी पर थे। फिर हाइडआउट के ऊपर चढ़ना शुरू किया। आतंकवादी, जो ऊंचाई पर थे इतनी गोली बरसाए कि कर्नल ने आदेश दिया कि वापस आ जाओ। मैं यह सारी जानकारी अपने कमांडेंट को सेट कर दे रहा था। हमारे कमांडेंट भी नीचे हाइडआउट के दक्षिण दिशा में पहुंचे हुए थे। उनकी टीम से आतंकवादियों की लगातार गोलीबारी चल रही थी। इस बीच ख़बर लगी कि नीचे की टीम के जम्मू-कश्मीर पुलिस के सिपाही को गोली लग गई जो कि बाद में शहीद हो गए। इस मुठभेड़ में दो आतंकवादी मारे गए। मैं अपनी टीम को लेकर हाइडआउट के नीचे बैठा ही था कि फिर आदेश आया कि हाइडआउट की सर्च करनी है। मैं जैसे ही उसके करीब जाने लगा, मेरे बाएं कान के बगल से सूं... करके कुछ गुजरा और पलक झपकते ही गोलियों की बौछार आई। हमने पेड़ की आड़ ले ली। आतंकवादी पहाड़ों के चट्टानों के बीच छिपे थे, उन पर हमारे गोला बारूद का कोई असर नहीं हो रहा था। हमने राकेट लांचर, ग्रेनेड, फायरिंग सब कुछ किया, लेकिन चट्टानों का हाइडआउट आतंकवादियों को सुरक्षित कर रखा था। आतंकवादी ऊंचाई पर थे, इसलिए हमारी हर हरकत उन्हें नजर आ रही थी और वे आगे नहीं बढ़ने दे रहे थे। जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा था और ऊपर से प्रेशर आ रहा था कि ऑपरेशन जल्दी खत्म करिए, क्योंकि आतंकवादियों के समर्थक काफी संख्या में पहाड़ों के नीचे जमा हो रहे हैं। पत्थरबाजी शुरू हो गई है। लाॅ एंड ऑर्डर का सिचुएशन खराब हो रहा है। सुसाइड सीन गया था। कोई चारा नहीं है। कर्नल ने आदेश दिया हाइड आउट के अंदर घुसना है और घुस के मारना है। इसमें हंड्रेड परसेंट अपने जान की जाेखिम है।

मैं इस मिशन के लिए वालंटियर बना। मेरे साथ मेरे बड्डी भी था। एक और टीम बनी। आर्मी के मेजर और उनके बड्डी का नुकसान निश्चित है, यह जानकर भी हम तैयार हुए। मैंने अपनी बड्डी से कहा तुम फिर मेरे पीछे एम (निशाना) करके रखना। मैं डिमोलिशन सेट हाइडआउट के ऊपर रख कर आता हूं। इस बीच मेरे ऊपर फायर हुआ तो तुम आगे मत आना। मेरी परवाह मत करना। मैं एक हाथ में डिमोलिशन सेट और दूसरे हाथ में कमांडो नाइफ लेकर आगे बढ़ा। हम हमारी लड़ाई दो मीटर के फासले की थी। मेरी समझ से गुत्मगुत्था की लड़ाई में राइफल से ज्यादा कमांडो नाइफ ज्यादा कारगर है। चारों ओर खामोशी थी। मैं अपने इष्ट देवी का नाम लेते हुए बिल्कुल शांति से रेंगते हुए हाइड तक पहुंचा। तीन मीटर की दूरी तय करने में मुझे 10 मिनट लग गए। एक पल एक घंटे जैसे लग रहे थे। उनके पास जाने तक उन्हें भनक तक नहीं लगी। मैं धीरे से हाइडआउट पर डिमोलिशन सेट रखा और फिर वापस आ गया। इसकी भनक उन्हें लग गई कि मैं उनके पास पहुंच गया हूं। मैं अपने बड्डी के पास पहुंचा ही था कि मेरे ऊपर अंधाधुंध गोलियां बरसीं, लेकिन तब तक मैं पेड़ के पीछे सुरक्षित पहुंच गया था। कर्नल ने हम लोगों को शाबासी दी और गले लगाया।

अब वक्त आया बटन दबाने का, जैसे ही बटन दबा जोरदार धमाके के साथ ब्लास्ट हुआ। पूरा हाइडआउट ध्वस्त हो गया। कुछ देर तक पूरी शांति के बाद हाइडआउट तलाशी के लिए गए। मैं, मेरा बड्डी और मेजर और उनके बड्डी। हमने बड़ी सावधानी से हाइडआउट के पास पहुंच कर देखा तो एक मृत शरीर दिखाई दिया। थोड़ी सी तसल्ली हुई कि चलो बदमाश मारा गया। फिर भी हम चौकन्ना थे। हमने ब्लास्ट से बने गड्ढे में टियर स्मोक डाला और मोलोटोव कॉकटेल डालकर आग लगा दिया। यह सारा काम हमलोग डेढ़ मीटर की दूरी पर एक पेड़ की आड़ लेकर कर रहे थे। अचानक उस गड्ढे से जलता हुआ एक आतंकवादी खड़ा हो गया और हमारे ऊपर फायर करने लगा। इस बार मैं तैयार था सीधे गोली उसके सिर पर मारी और सब शांत। जैश ए मोहम्मद का कमांडर ढेर हो गया। इस ऑपरेशन में कुल चार आतंकवादी (दो पाकिस्तानी और दो लोकल) का खात्मा किया। शायद पूरे ऑपरेशन का डिटेल आतंकवादी अपने आका को दे रहे थे। ऑपरेशन के लगभग दो दिन बाद तराल इलाके में यह खबर फैल गई कि मैंने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था। मेरे पास थ्रेट कॉल आने लगे। जैश ए मोहम्मद के कमांडर का मारा जाना उनके लिए बहुत बड़ा सदमा था। मैं उनकी हिटलिस्ट में आ गया था। नतीजा मेरे ऊपर जानलेवा हमला हुआ।

यह थी कोलकाता के मूल निवासी राजेंद्रनाथ मल्लिक की कश्मीर घाटी के पुलवामा में आतंकवादियों के खिलाफ अभियान की एक कहानी।

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