यदि सरकार करे पहल तो कुचाई सिल्क से बदल सकती ग्रामीण अर्थव्यवस्था

एक समय चीन जर्मनी मास्को में भी यहां का उत्पाद धूम मचा रहा था। अब हालात यह है कि बाजार के लिए उत्पादक तरस रहे हैं। सरायकेला-खरसावां जिले में साल में दो बार तसर की खेती होती है।

By Rakesh RanjanEdited By: Publish:Sat, 06 Jun 2020 12:01 PM (IST) Updated:Sat, 06 Jun 2020 02:49 PM (IST)
यदि सरकार करे पहल तो कुचाई सिल्क से बदल सकती ग्रामीण अर्थव्यवस्था
यदि सरकार करे पहल तो कुचाई सिल्क से बदल सकती ग्रामीण अर्थव्यवस्था

सरायकेला,  प्रमोद सिंह। सरायकेला का लड्डू और कुचाई सिल्क दो ऐसे उत्पाद हैं जो सरायकेला-खरसावां जिले की पहचान में चार चांद लगाते रहे हैं। यहां पहुंच कर जब आप किसी स्थानीय से पूछिएगा क्या मशहूर है, जवाब में यही दोनों उत्पाद सर्व प्रथम बताए जाएंगे। लेकिन, कुचाई सिल्क  से जुड़े यहां के ग्रामीणों व कारोबारियों की हालत बढिय़ा नहीं है। उत्पाद के लिए ठीक से बाजार नसीब नहीं है। तसर की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए प्रशासन व सरकार के पास कोई ठोस कार्ययोजना भी नहीं है। यदि इस पर योजनाबद्ध तरीके से सरकार व प्रशासन ध्यान दे तो गांवों की अर्थव्यवस्था की सूरत बदल सकती है। फिर ग्रामीणों को काम के लिए भटकना नहीं पड़ेगा।

इस जिले में करीब आठ करोड़ क्विंटल तसर हर वर्ष उत्पादित हो रहा है। किसानों का सालाना कारोबार करीब 25 करोड़ रुपये का है। अच्छी बात यह भी है कि जिले में तसर की खेती के लिए किसी तरह की उपजाऊ जमीन की आवश्यकता नहीं होती। धान के खेत में मेढ़ पर अर्जुन आसन के पौधे लगाकर तसर की खेती हो जाती है। किसान धान के साथ तसर का भी उत्पादन कर लेते हैं। कई किसान तो यहां पर बंजर भूमि में भी अर्जुन आसन के पौधों पर कीटपालन करते दिख जाएंगे। वर्ष 2005 से 2013 के दौरान खरसावां और कुचाई क्षेत्र में बड़े पैमाने पर तसर की खेती होती थी। राजनगर और चांडिल क्षेत्र में भी तसर की खेती की शुरुआत की गई थी पर परवान नहीं चढ़ी। प्रशासनिक उदासीनता के कारण नजरा गई।

आर्गेनिक तसर का  मिल चुका है दर्जा

खरसावां और कुचाई क्षेत्र में तैयार होने वाले तसर को आर्गेनिक तसर का दर्जा भी मिल चुका है। इस कारण यहां के तसर से बने रेशम के कपड़ों की न सिर्फ देश बल्कि विदेश में भी काफी मांग है। करीब दस वर्ष पहले तक बड़े पैमाने पर यहां से सिल्क का कपड़ा निर्यात होता था। यहां के कृषक गर्व से कहते हैं कि एक समय चीन, जर्मनी व मास्को भी कुचाई सिल्क के दीवाने हुआ करते थे। आयात करते थे। परंतु अब यह सपनों जैसी बात है। सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। धीरे-धीरे सबकुछ खत्म होता चला गया। यदि सरकार ध्यान दे तो इसे अब भी पुनर्जीवित करना संभव है।

यहां घर-घर लोगों को मिल सकता है रोजगार

कोकून विशेष प्रकार के कीड़े का नाम है। इससे तसर निकलता है। फिर तसर से रेशम के धागे तैयार होते हैं। इन धागों से कपड़ा तैयार होता है। इस प्रकार से देखा जाए तो इससे कई स्तर पर स्वरोजगार संभव है। पहले यहां गांवों में महिलाएं धागा बनाने का काम करती थीं। कपड़ा भी तैयार कर लेती थीं। उद्योग विभाग के झारक्राफ्ट के जरिए वर्ष 2009 में सरायकेला-खरसावां जिले में तसर कोसा से सूत कताई के लिये 45 सामान्य सुलभ केंद्र खोले गये थे। 38 केंद्र सिर्फ कुचाई व खरसावां में थे। अभी यहां चार केंद्र ही चल रहे हैं। वह भी नाम मात्र के। दो केंद्रों पर कपड़े तैयार होते थे। फिलहाल सभी कार्य बंद हैं। पहले यहां सूत कातने वाली महिलाओं को हर माह करीब 12 हजार रुपये की आमदनी होती थी। आज भी सूत कताई शुरू हो जाए तो घर-घर महिलाओं को काम मिल जाएगा।

यहां के सिल्क का वेस्ट भी  खरीदने लगा था जर्मनी

सरकारी संस्था झारक्राफ्ट द्वारा जो कुचाई सिल्क तैयार किया जाता है। उसमें से वेस्ट निकलता है। इसका इस्तेमाल झारखंड में नहीं हो पाता है पर जर्मनी की एक कंपनी को ये वेस्ट भी पसंद आ गए। उसने खरीद शुरू कर दी। 2013 में जर्मनी को एक टन वेस्ट झारक्राफ्ट ने भेजा था। इसके बाद से नहीं भेजा गया। इस ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। यदि ठीक से मार्केटिंग व ब्रांडिंग होती तो बड़ा कारोबार जारी रहता। राजस्व भी प्राप्त होता।

इसलिए उत्पाद का नाम  पड़ गया कुचाई सिल्क

जिले के कुचाई प्रखंड में सबसे अधिक सिल्क का उत्पादन होता रहा है। यहां हर पंचायत में किसान कोकून की खेती करते थे। तसर तैयार करते थे। ऐसा माना जाता रहा है कि यहां सबसे अच्छा उत्पाद होता है। यही वजह है कि यह उत्पाद कुचाई सिल्क के नाम से मशहूर हो गया। 

कुचाई सिल्क देखने के लिए  मारंगहातू आए थे राष्ट्रपति भी

वर्ष 2004 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम जब झारखंड दौरे पर आए थे, तो कुचाई सिल्क देखने के लिए खरसावां प्रखंड के मारंगहातू गांव भी गए थे। इस दौरान डॉ. कलाम ने कुचाई सिल्क को आगे बढ़ाने के लिए कई तकनीकी सुझाव भी दिए थे।

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