हुलास की बासंती काव्य-गोष्ठी में महसूस की गई कोयल की कूक व पलाश की लालिमा
शहर की साहित्यिक संस्था हुलास ने मार्च के प्रथम दिवस और बसंत का महीने को अंगीकार किया। सोमवार की संध्या चाय की प्यालियां और कवियों की महफिल से ना केवल कोयल की कूक महसूस की गई बल्कि आसपास पलाश के फूलों की लालिमा भी बिखरती हुई दिखी।
जमशेदपुर, जासं। शहर की साहित्यिक संस्था हुलास ने मार्च के प्रथम दिवस और बसंत का महीने को अंगीकार किया। सोमवार की संध्या चाय की प्यालियां और कवियों की महफिल से ना केवल कोयल की कूक महसूस की गई, बल्कि आसपास पलाश के फूलों की लालिमा भी बिखरती हुई दिखी। जमशेदपुर के मंचीय कवियों की संस्था हुलास की कदमा में हुई काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता शहर के वरिष्ठ हास्य कवि हरिकिशन चावला 'धनपत' ने की, तो संचालन नवीन कुमार अग्रवाल ने किया।
डा. लता मानकर 'प्रियदर्शिनी' ने अपने मधुर स्वर में सरस्वती वंदना गाकर इस गोष्ठी का आगाज किया। इसी कड़ी में शहर के कवि श्यामल 'सुमन' ने जीवन दर्शन से ओतप्रोत एक गीत जब रागदरबारी धुन पर सुनाया तो सब वाह-वाह कर उठे। गीत के बोल थे...
'रोज सीखते जो जीवन से
संघर्षों से, स्पन्दन से
उस पलाश का जीवन कैसा
जीता खुश्बू-हीन सुमन सा"
अभी यह खुमारी कम नहीं हुई थी कि हरिकिशन चावला 'धनपत' ने किसानों को एक नसीहत दे डाली-
"नए नए अन्न की फसलें
नए नए फूलों के बाग
आओ इन्हें लगाकर हम
हरियाली का विस्तार करें'
कोई नहीं रहे बिन रोटी
ऐसे कृषि सुधार करें"
अजय 'मुस्कान' ने सुनाया...
'उलझनें बहुत हैं
मगर सुलझा लिया करता हूं
वक्त बेवक्त
थोड़ा मुस्कुरा लिया करता हूं'
जयप्रकाश पांडेय' ने भी एक सलाह दे डाली...
' इस मुसीबत से तुम ना घबराओ,
अपने गम मेरे पास रख जाओ।
मैं अंधेरों के साथ जी लूंगा,
ये उजाले यहां से ले जाओ।'
डा. संध्या सूफी ने तो नारी के संपूर्ण जीवन पर लगे लाकडाउन की हृदयस्पर्शी कविता "'बुधिया का लाकडाउन'" सुना डाला...
"जब से आई हूं ब्याह कर
'बर्तन, चौका-चूल्हा, झाड़ू-पोंछा
कूटन-पीसन, पकाना-खिलाना
कपड़े धोना, बच्चे संभालना
सब तो करती हूं-
घूंघट से मुंह ढंककर रहती हूं-
फिर ये नया लाकडाउन क्या है"
डा. लता मानकर 'प्रियदर्शिनी' ने मानों नारी के दर्द को ही दवा का रूप दे दिया...
' तीखा-तीखा मध्यम-मध्यम
दर्द उठा जो सीने में,
कतरा-कतरा टूट के देखो
मज़ा है कितना जीने में'
हास्य कवि नवीन कुमार अग्रवाल ने एक कुंवारे कवि की व्यथा बताई...
"दूल्हों के बाज़ार में
हम भी खड़े थे कतार में
वकील-डाक्टर लाखों में
हम थे-सिर्फ दो हज़ार में"
मेजबान विजय सिंह 'बेरूका' ने गजल सुनाई...
'यह जो माथे पर मेरे चोट का गहरा निशान है
ता-उम्र गुज़रे जुल्मों की ये दास्तान है'
धन्यवाद ज्ञापन जयप्रकाश पांडेय ने किया। इससे पूर्व 'हुलास' द्वारा प्रकाशित होने वाले साझा
काव्य संग्रह पर भी विस्तार से चर्चा हुई।