ऐसी है इस गांव की कहानी: दो जून की रोटी के लिए करनी पड़ती है कड़ी मशक्कत

जमशेदपुर प्रखंड का सबसे अंतिम गांव है सिरका। चारों ओर पहाड़ व जंगल से घिरे इस गांव तक पहुंचने के लिए टूटे-फूटे रास्ते हैं। आज कोरोना काल में स्थिति यह है कि गांव के लोगों को दो जून की रोटी के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है।

By Rakesh RanjanEdited By: Publish:Tue, 22 Sep 2020 09:16 AM (IST) Updated:Tue, 22 Sep 2020 09:16 AM (IST)
ऐसी है इस गांव की कहानी: दो जून की रोटी के लिए करनी पड़ती है कड़ी मशक्कत
पत्तल बनाती आदिवासी बहुल सिरका गांव की महिलाएं।

जमशेदपुर, मनोज सिंह। जमशेदपुर प्रखंड का सबसे अंतिम गांव है सिरका। चारों ओर पहाड़ व जंगल से घिरे इस गांव तक पहुंचने के लिए टूटे-फूटे रास्ते हैं। जमशेदपुर प्रखंड का अंतिम गांव होने के कारण इस आदिवासी बहुल गांव की अनदेखी शासन से लेकर प्रशासन तक अब तक करती आ रही है।

आज कोरोना काल में स्थिति यह है कि गांव के लोगों को दो जून की रोटी के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। कोराना संक्रमण से बेखबर इस गांव के लोग रोजमर्रा की सामग्री की पूर्ति भी नहीं कर पा रहे हैं। गांव में एक समिति बनी हुई है, जिसमें 150 सदस्य हैं। अध्यक्ष संगीता मुर्मू व कोषाध्यक्ष गणेश हांसदा हैं। दोनों ही व्यक्ति ग्राम प्रधान के सहयोग से गांव वालों को पत्तल बनवाने का काम करते हैं। उसी पत्तल बिक्री करने से मिलने वाली रकम से गांव वाले  दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हैं। 

तीन किमी दूर पैदल जंगल से होकर जाते हैं पढ़ने 

गांव में स्कूल नहीं होने के कारण करीब 100 बच्चे  कीचड़युक्त रास्ता व घने जंगल से होते हुए तीन किमी दूर हड़माडीह स्कूल में पढ़ने जाते हैं। ग्रामवासी गणेश हांसदा कहते हैं कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित है गांव। यहां न स्कूल है, न सामुदायिक भवन और न रोजगार के साधन। उन्होंने बताया कि कुछ माह पूर्व गांव में टीएसआरडीएस की ओर से सोलर पंप लगाया गया है जिससे फिलहाल पानी की किल्लत नहीं हो रही है। बिजली है लेकिन माह में आधे दिन ही रहती है। 

पत्तल बनाने में जुट जाते हैं गांव के लोग 

सुबह होते ही गांव के लोग पत्तल बनाने में जुट जाते हैं। ग्रामवासी गणेश कहते हैं कि परिवार के लोग जंगल से साल के पत्ते लाकर पत्तल बनाते हैं। एक परिवार एक दिन में 200-250 पत्तल बना लेते हैं। जिसे सप्ताह में दो से तीन दिन जमशेदपुर में लाकर बिक्री करते हैं। 100 पत्तल 30 रुपये के हिसाब से बिक्री करते हैं। इस तरह सप्ताह में बमुश्किल 300 रुपये कमा पाते हैं। इसी से अपनी आवश्कता की पूर्ति करते हैं। 

2013 में बना था झोपड़ीनुमा स्कूल् हो गया बंद 

गांव के दो पढ़े लिखे युवकों ने 2013 में बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। चूंकि बरसात में बच्चे तीन किमी दूर स्कूल रास्ता नहीं रहने के कारण स्कूल नहीं जाते थे, इसलिए गांव में एक झोपड़ी बनाई गई  जिसमें बच्चों को पढ़ाया जाने लगा। कुल 50 से अधिक बच्चे पढ़ाई करने लगे।  शिक्षकों को कुछ मानदेय देने के लिए भी पैसे नहीं होते थे। लोग 10 रुपये महीना भी नहीं दे पाते थे। ऐसी स्थिति में तत्कालीन विधायक रामचंद्र सहिस से लेकर वर्तमान विधायक मंगल कालिंदी से गुहार लगाय गई, लेकिन आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिला। अंतत: स्कूल को बंद कर देना पड़ा। 

एक पेड़ काटा तो लगाना होगा 20 पेड़ 

पर्यावरण के प्रति इतना सचेत हैं ग्रामवासी कि साल के पेड़ की पूजा करते हैं। ग्राम वन एवं संरक्षण समिति ने  शपथ ली है कि कोई भी गांववासी पेड़ नहीं काटेगा। यदि कोई काटता है तो उसे एक बदले 20 पेड़ लगाने होंगे। समिति में संगीता मुर्मू, दुलाराम टुडू, गणेश हांसदा, गुरुचरण मार्डी, मंगल हांसदा, कापरा टुडू, मायनो हांसदा आदि शामिल हैं।

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