Autistic Pride Day : ऑटिज्म की पहचान सही समय पर होने से जिंदगी हो जाती है बेहतर

ऑटिस्टिक प्राइड डे हर साल 18 जून को मनाया जाता है। यह दिवस ऑटिज्म से ग्रस्त लोगों को समाज में महत्व और गौरव की अनुभूति कराने के लिए मनाया जाता है। ऑटिज्म से पीड़ित लोग अक्सर मानवाधिकारों के उल्लंघन भेदभाव और कलंक के अधीन होते हैं।

By Rakesh RanjanEdited By: Publish:Fri, 18 Jun 2021 05:43 PM (IST) Updated:Fri, 18 Jun 2021 06:48 PM (IST)
Autistic Pride Day : ऑटिज्म की पहचान सही समय पर होने से जिंदगी हो जाती है बेहतर
ऑटिज्म के प्रति लोगों को जागरूक होने की जरूरत है।

जमशेदपुर, जासं। ऑटिस्टिक प्राइड डे, हर साल 18 जून को मनाया जाता है। यह दिवस ऑटिज्म से ग्रस्त लोगों को समाज में महत्व और गौरव की अनुभूति कराने के लिए मनाया जाता है। ऑटिज्म से पीड़ित लोग अक्सर मानवाधिकारों के उल्लंघन, भेदभाव और कलंक के अधीन होते हैं।

इस तरह के भेदभाव को रोकने के लिए ऑटिस्टिक प्राइड डे और ऑटिस्टिक अवेयरनेस डे मनाया जाता है। ऑटिज्म के प्रति लोगों को जागरूक होने की जरूरत है। अधिकांश लोगों को इस बीमारी के बारे में पता नहीं होता। इस कारण से बीमारी काफी बढ़ जाती है और समय पर पहचान नहीं हो पाती है। परसुडीह स्थित सदर अस्पताल के मनोचिकित्सक डॉ. दीपक गिरी ने बताया कि ऑटिज्म मस्तिष्क विकास में उत्पन्न बाधा संबंधी विकार है। ऑटिज्म से ग्रसित व्यक्ति दूसरों से अलग स्वयं में खोया रहता है। इस चीज को दूर करने के मकसद से ऑटिस्टिक प्राइड डे मनाया जाता है। ताकि वे अपने आप को समाज से अलग नहीं समझे। ऑटिज्म से पीड़ित हर बच्चे में अलग-अलग लक्षण होते हैं। 40 फीसद ऑटिस्टिक बच्चे बोल नहीं पाते। व्यक्ति के विकास संबंधी समस्याओं में ऑटिज्म तीसरे स्थान पर है। जमशेदपुर में 250 से अधिक ऑटिज्म के रोगी हैं।

समय पर पहचान जरूरी, पूरी तरह से ठीक नहीं होता ऑटिज्म

जन्म के दो साल तक अगर बच्चे किसी तरह का इशारा नहीं करें तो वह ऑटिज्म का लक्षण हो सकता है। वैसी परिस्थिति में उसे चिकित्सक से दिखाना चाहिए। क्योंकि सही समय पर बीमारी की पहचान हो जाए तो उसे काफी हद कर ठीक किया जा सकता है। डॉ. दीपक गिरी ने बताया कि ऑटिज्म की पहचान सही समय पर होने से उसे सही ट्रीटमेंट देकर रोगी का जिंदगी बेहतर किया जा सकता है। ऑटिज्म रोगी को बिहेवियर थेरेपी सहित अन्य तरह के थेरेपी देकर इलाज किया जाता है।

ऑटिज्म के लक्षण जन्म के दो साल तक बच्चों को नहीं बोलना।  भाषा के विकास में विलंब होना। समूह में खेलना पसंद नहीं करना। मानसिक अवसाद। गले मिलने से अस्वीकार करना। नाम बुलाने पर उत्तर नहीं देना। एक चीज को बार-बार दोहराना।

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