प्राकृतिक परिवेश व खानपान कोरोना को यहां नो इंट्री

लीड----------- गांव की कहानी विष्णुगढ के डूमरडीहा गांव में अब तक नहीं हुआ कोई संक्र

By JagranEdited By: Publish:Tue, 18 May 2021 09:30 PM (IST) Updated:Tue, 18 May 2021 09:30 PM (IST)
प्राकृतिक परिवेश व खानपान कोरोना को यहां नो इंट्री
प्राकृतिक परिवेश व खानपान कोरोना को यहां नो इंट्री

लीड-----------

गांव की कहानी

विष्णुगढ के डूमरडीहा गांव में अब तक नहीं हुआ कोई संक्रमित

कठिन मेहनत मजदूरी करते हैं गांव के लोग

ललित मिश्रा, विष्णुगढ़ (हजारीबाग) : प्रखंड का डूमरडीहा गांव कोविड-19 से अब तक अछूता है। आसपास के स्वास्थ्य केंद्रों में आयोजित कोरोना जांच शिविर में भी ग्रामीण भाग लेते हैं और कोरोना की जांच कराते हैं। कोरोना नहीं होने का मुख्य इसका प्रमुख कारण यहां की प्रकृित और लोगों का रहनसहन और खानपान है। 250 ग्रामीणों की आबादी वाले जंगल के किनारे बसे इस गांव के लोगों का जीवन यापन खेती बारी और मेहनत मजदूरी है। परंपरागत अनाज व जलचर इनका प्रिय भोजन है। गांव में कुछ पढे़ लिखे लोग भी हैं। यहां दो सरकारी व दो दो पारा शिक्षक हैं। गांव के आठ पलंबर (राजमिस्त्री ) हैं। बाकी के ग्रामीण खेती बारी एवं मेहनत मजदूरी कर घर गृहस्थी चला रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है उन्हें अपने परंपरागत खान पान में भरोसा है। उनके खाने में दाल चावल के अलावा मडुआ, मकई, बाजरा आदि शामिल है। इसके अलावा महुआ लट्ठा (लड्डू) भी चाव से खाते हैं। साथ में जंगल से मिलने वाले सखुआ बीज से बने आटे का सेवन समय समय पर करना नहीं भूलते है। मधुमक्खी के छत्ते से मधु निकालकर उसे चाव से खाया जाता है। जंगल से कोरैया फूल, गाठी (एक प्रकार का जड़) लाकर उसे पका कर खाने में शामिल करना ग्रामीणों की पहली पसंद हुई है। साथ ही तालाब और डैम में मिलने वाला घोंधा सुतिआ और मछली जैसे जलचर को खाने में शामिल किया जाता है। सब्जी और पकवान बनाने में महुआ बीज (कोड़ी) तेल घरों में उपयोगी बना हुआ है। मजे की बात तो यह है कि इस आधुनिक दौर में खान-पान में हुए बड़े बदलाव में भी ग्रामीणों के खाने में परंपरागत खाद्य पदार्थ की मजबूती से जगह बनी हुई है। करंज का तेल का उपयोग शरीर में लगाने के अलावा घाव को ठीक करने में दवा के तौर पर उपयोग किया जाता है।

क्या कहते हैं ग्रामीण

पारा शिक्षक रोहित मरांडी कहते हैं परंपरागत खाना ही हमारे अच्छे स्वास्थ्य का एक बड़ी वजह है। मौसम बदलने पर हल्के बुखार के अलावा सर्दी खांसी की शिकायत ग्रामीणों खासकर बच्चों में जरूर होती है। पर घरेलू उपचार के अलावा ग्रामीण चिकित्सक से दवाईयां लेने से बीमारी की शिकायत चंद रोज में दूर हो जाती है। जंगल और पोखर से मिलने वाले खाद्य पदार्थ स्वस्थ्य रखने में काम के साबित होते हैं। बगल के गांव बरहमोरिया के पारा शिक्षक प्रदीप कुमार कहते हैं कि डूमरडीहा के ग्रामीणों को अपने परंपरागत खाना एवं रहन सहन में विश्वास है। जंगल से मिलने वाले गांठी खाना उनकी पहली पंसद बनी हुई है। वे कहते हैं गांव में परंपरा की जड़े गहरी हैं। गांव के किसून मांझी 1970 में मैट्रिक पास हुए थे। उन्हें शिक्षक की नौकरी भी मिली पर नौकरी छोड़ गांव में रहते खेती बारी कर अपनी जीविका चलाना स्वभाव बना रहा।

chat bot
आपका साथी