खुद के पापों को स्वयं ही भोगना होता है : विशुद्ध सागर जी महाराज
पारसनाथ (गिरिडीह) भावों के अनुसार कर्म का बंध होता है। जैसा बंध होता है ठीक उसी तरह
पारसनाथ (गिरिडीह) : भावों के अनुसार कर्म का बंध होता है। जैसा बंध होता है ठीक उसी तरह कर्मों का उदय होता है। सत्ता के उदय से सुख तथा असत्ता के उदय से दुख होता है। जीवन में सुख व दुख दो पहलू होते हैं, यानी कभी सुख तो कभी दुख। अशुभ उदय के काल में जीवन रूद्रन, दुखित व कष्ट प्राप्त करता है। उक्त बातें आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज ने कही। वे शुक्रवार को तेरहपंथी कोठी में प्रवचन दे रहा थे। प्रवचन के दौरान महाराज श्री ने कहा कि जीव स्वयं ही पाप करता है तथा स्वयं ही कष्टों को भोगता है। आंखों की पलक उठाने में भी शक्ति लगानी पड़ती है और इसका एहसास वृद्धावस्था में होता है। कभी पहलवानी करने वाले भी शक्तिक्षीण होने पर एक कदम उठा भी नहीं पाते हैं। जीव स्वयं बंधता है तथा स्वयं मुक्त भी होता है। जब जीव के भाव, भाषा व कार्य बुरे होते हैं तो समझा जा सकता है कि उसके साथ बुरा होना है। प्रज्ञावंत मनुष्य को संभलकर जीवंत जीवन जीना चाहिए। वहीं कहा कि जीवन में आत्म जागृति आवश्यक है। पलभर की भी असावधानी नहीं करनी चाहिए क्योंकि क्षण भर का भी प्रमाद व आलस जिदगी भर का भी दुख दे सकता है। जिस तरह एक बीज वृक्ष के रूप में विस्तृत हो जाता है। ठीक उसी तरह एक अशुभ भाव व पाप जीवन को पतित कर देता है। सुखद जीवन के लिए उत्साह, उमंग के साथ जीवंत जीवन जीना चाहिए। निराश होकर जीने वाला व्यक्ति कभी सफल इंसान नहीं हो सकता।