Madhupur में यूपीए की हैट्रिक या भाजपा की वापसी? मतदाताओं ने सुना दिया अपना फैसला, अब 2 मई का इंतजार

2019 में हुए झारखंड के विधानसभा चुनाव के डेढ़ साल के भीतर मधुपुर में तीसरे उप चुनाव के लिए मतदान हो चुका है। शनिवार को विस क्षेत्र के मतदाताओं ने अपना फैसला सुना दिया। इससे पहले दुमका और बेरमो विस सीटों पर उपचुनाव हुए थे।

By Atul SinghEdited By: Publish:Sat, 17 Apr 2021 06:39 PM (IST) Updated:Sat, 17 Apr 2021 06:39 PM (IST)
Madhupur में यूपीए की हैट्रिक या भाजपा की वापसी? मतदाताओं ने सुना दिया अपना फैसला, अब 2 मई का इंतजार
मतदान के बाद स्‍याही का निशान दिखाते हफिजुल हसन और गंगा नारायण सिंह।

मधुपुर (देवघर), अश्विनी रघुवंशी। 2019 में हुए झारखंड के विधानसभा चुनाव के डेढ़ साल के भीतर मधुपुर में तीसरे उप चुनाव के लिए मतदान हो चुका है। शनिवार को विस क्षेत्र के मतदाताओं ने अपना फैसला सुना दिया। इससे पहले दुमका और बेरमो विस सीटों पर उपचुनाव हुए थे। दोनों सीटें पहले भी यूपीए गठबंधन के पास थीं। उपचुनाव के बाद भी वहां यूपीए ने जीत का पताका फहराया। मधुपुर सीट भी यूपीए गठबंधन की रही है। अब दो मई को पता चलेगा कि यूपीए गठबंधन की हैट्रिक होगी या भाजपा को वापसी का मौका मिलेगा।

दुमका सीट हेमंत सोरेन ने छोड़ी थी। वहां उनके भाई बसंत सोरेन ने चुनाव लड़ा और जीत गए। कांग्रेसी दिग्गज राजेंद्र सिंह के निधन के बाद बेरमो सीट खाली हुई थी। वहां उनके पुत्र जयमंगल सिंह उर्फ अनूप सिंह को कांग्रेस ने टिकट दिया। वो जीत गए। मधुपुर सीट भी दिशोम गुरु शिबू सोरेन के पुराने सहयोगी हाजी हुसैन अंसारी के इंतकाल के बाद खाली हुई है। झामुमो ने हाजी साहब के पुत्र हफिजुल हसन अंसारी पर भरोसा जताया। दुमका और बेरमो की जनता ने परिवारवाद पर आपत्ति नहीं की बल्कि उस पर मुहर भी लगायी। मधुपुर उप चुनाव न सिर्फ यूपीए और भाजपा की जीत-हार का गवाह बनेगा बल्कि लगातार तीसरे उप चुनाव में परिवारवाद पर झारखंड की जनता के मिजाज की ओर भी इशारा करेगा।

झारखंड विधानसभा के चुनाव के बाद भाजपाइयों को अभी तक अबीर-गुलाल उड़ाने का अवसर नहीं मिला है। दुमका और बेरमो में भाजपा नेतृत्व ने उन्हीं चेहरों को आजमाया जिन्हेंं विधानसभा चुनाव में मौका दिया गया था। दुमका से डॉक्टर लुइस मरांडी हार गईं तो बेरमो में योगेश्वर महतो बाटुल भी चुनावी समर में खेत रहे। मधुपुर में भाजपा ने उम्मीदवार के चयन में तनिक प्रयोग किया है। विधानसभा चुनाव में राज पलिवार हार गए थे। उसी चुनाव में आजसू पार्टी के टिकट पर गंगा नारायण सिंह ने 45 हजार से अधिक मत हासिल किए थे। विधानसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर आजसू पार्टी ने मधुपुर सीट से चुनाव लडऩे का दावा भी किया था। हालांकि, भाजपा नेतृत्व ने आजसू पार्टी के दावा को स्वीकार नहीं किया। उलटे गंगा नारायण सिंह को ही भाजपा में शामिल कराने के बाद उम्मीदवार बना दिया। गंगा नारायण का खुद का जमीनी आधार है। उनके पास कुछ इलाकों में पॉकेट वोट है। भाजपा नेतृत्व का आकलन है कि पार्टी के परंपरागत मत तो मिलेंगे ही, गंगा नारायण के व्यक्तिगत प्रभाव का वोट भी जुड़ जाएगा तो मधुपुर की चुनावी नैया आसानी से पार लग जाएगी। असल मेहनत सिर्फ बूथों तक अपने समर्थकों को ले जाने के लिए करनी थी। भाजपाई उसके लिए पसीना बहाते भी नजर आए।

मधुपुर की चुनावी सियासत ऊपर से जितनी आसान दिखती है, उतनी है नहीं। यहां मुस्लिम मतदाताओं की प्रभावी संख्या है। आदिवासी मतदाता भी कम नहीं। इससे इतर और बिरादरी के मतों का आंकड़ा भी ऐसा है कि उनकी एकजुटता चुनाव नतीजों को बिल्कुल बदल सकती है। इसलिए किसी को भी कमतर नहीं आंका जा सकता। मुस्लिमों की बड़ी आबादी ने ही बीते विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी को मधुपुर की ओर आकर्षित किया था। उन्होंने उम्मीदवार भी उतारा था, जिसे तकरीबन 10 हजार मत मिले थे। इस बार असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी चुनाव नहीं लड़ रही है। भाजपा और झामुमो में सीधे मुकाबले के कारण दो निर्दलीय उम्मीदवार अशोक ठाकुर और उत्तम यादव जरूर अहम नजर आए। दोनों निर्दल उम्मीदवार लंबे समय से चुनाव लडऩे के लिए मेहनत कर रहे थे। दोनों निर्दल उम्मीदवारों ने जिस तरीके से चुनाव प्रचार किया, उसने भाजपा और झामुमो के रणनीतिकारों को चिंता और चिंतन में जरूर डाल दिया है। इससे इतर ब्राह्मणों की सामाजिक सियासत भी मधुपुर में खूब गूंजी। यह कितना असरकारक होगा, यह तो चुनाव के नतीजे भी बताएंगे। मधुपुर के मतदाताओं का फैसला ईवीएम में बंद हो चुका है और उम्मीदवार बेचैन हैं।

कभी जनसंघ ने फहराया था पताका: मधुपुर में झामुमो की जड़ें जितनी गहरी हैं, उतनी ही भाजपा की भी। भाजपा पहले जनसंघ थी। उस वक्त पार्टी के पास बहुत सीटें नहीं होती थी। उस वक्त जनसंघ ने तीन बार मधुपुर सीट जीतने में कामयाबी हासिल की थी। जनसंघ के अजीत बनर्जी ने 1967, 72 और 77 में चुनाव जीता था। जनसंघ के बाद मधुपुर सीट पर कांग्रेस ने अंगद की तरह पांव जमाए थे। फिर झामुमो को मौका मिला तो उसने लगातार मधुपुर को अपना गढ़ बना लिया। हाजी हुसैन अंसारी लगातार यहां से विधायक चुने जाते रहे। 1980 में भाजपा की स्थापना हुई थी। उसके बाद भाजपा दो बार यहां विजयी हुई है। 2005 और 2014। संयोग से दोनों बार राज पलिवार ही भाजपा के उम्मीदवार थे।  

जीत का रिद्म बनाए रखने की चाहत: सीएम हेमंत सोरेन चुनावों में जीत का रिदम बनाए रखना चाहते हैं। हफिजुल हसन को चुनाव मैदान में उतारने के पहले उन्होंने कैबिनेट मंत्री बना दिया। खुद सात दिनों तक मधुपुर में डेरा डंडा डाले रहे। दुमका के अंदाज में ही मधुपुर का चुनाव लड़ा। झामुमो, कांग्रेस और राजद के सारे मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतारा गया। बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की सभा कराई गई। यूपीए के अधिकतर विधायकों को पंचायत स्तर पर मतदाताओं को बांधे रखने के काम में लगाया गया। राज पलिवार के नहीं लडऩे के कारण भाजपा में जहां भी असंतोष की गंध मिली, तुरंत हेमंत के दूत पहुंच गए। हेमंत बोले, मैंने मधुपुर को मंत्री दिया, मधुपुर के लोग हमें विधायक दें।

मरांडी संग निशिकांत ने खूब बहाया पसीना: मधुपुर के किसी इलाके में घूम जाइए, यह अहसास होगा कि गंगा नारायण सिंह भले भाजपा के घोषित उम्मीदवार रहे, लेकिन चर्चा है कि चुनाव खुद गोड्डा सांसद डॉक्टर निशिकांत दुबे लड़ रहे हैं। बंगाल में चुनाव प्रचार को बीच में छोड़ कर निशिकांत दुबे मधुपुर आए तो जम गए। जहां भी भाजपा के कमजोर होने का अहसास हुआ, खुद गए। साम, दाम, दंड, भेद की सारी चाणक्य नीति का चुनाव में प्रयोग किया गया। भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी ने भी 11 दिनों तक एक-एक पंचायत के लोगों को छूने का प्रयास किया। छोटी सभाएं करने से भी गुरेज नहीं किया। मरांडी बोले, जैसे शिबू सोरेन सीएम रहते तमाड़ में हारे थे, वैसे ही हफिजुल मंत्री रहते मधुपुर में हारेंगे।

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