आदिवासी परंपरा विद्या के देवी देवता हैं बिदू चांदान व बोंगा बुरु

निरसा डोमभुई फुटबॉल मैदान में डोमभुई ग्राम कमेटी ने बिदू चांदान बोंगा बुरु पूजा धूमधाम से मनाई। इस दौरान संताली परंपरा के बिदू चांदान की पूजा अर्चना की गई। वरीय बुनियादी मध्य विद्यालय निरसा के शिक्षक चुन्नीलाल किस्कू ने कहा कि जिस तरह हिदू सनातन संस्कृति में मां सरस्वती को विद्या की देवी माना गया है।

By JagranEdited By: Publish:Sun, 28 Feb 2021 05:50 PM (IST) Updated:Sun, 28 Feb 2021 05:50 PM (IST)
आदिवासी परंपरा विद्या के देवी देवता हैं बिदू चांदान व बोंगा बुरु
आदिवासी परंपरा विद्या के देवी देवता हैं बिदू चांदान व बोंगा बुरु

निरसा : डोमभुई फुटबॉल मैदान में डोमभुई ग्राम कमेटी ने बिदू चांदान बोंगा बुरु पूजा धूमधाम से मनाई। इस दौरान संताली परंपरा के बिदू चांदान की पूजा अर्चना की गई। वरीय बुनियादी मध्य विद्यालय निरसा के शिक्षक चुन्नीलाल किस्कू ने कहा कि जिस तरह हिदू सनातन संस्कृति में मां सरस्वती को विद्या की देवी माना गया है। उसी प्रकार आदिवासी समाज में बिदू चांदान अनल बोंगा को ज्ञान का देवी व देवता माना जाता है। आदिवासी अलचिकी लिपि के माध्यम से पत्थरों पर उन्होंने अपनी बातों को पत्थरों पर उकेरा था। पुरानी दुश्मनी को समाप्त करने के लिए लिटा गोसाई ने इन्हें धरती पर भेजा :

चुन्नीलाल किस्कू ने बताया कि आदिवासियों का इतिहास कहीं भी लिखित रूप में मौजूद नहीं है। बुजुर्गों के अनुसार आदिवासी के दो गढ़ चायगाड एवं मानगड़ में पुरानी दुश्मनी को मिटाने के लिए लिटा गोसाई ने स्वर्ग लोक से इन दोनों को जीवित रूप देखकर धरती पर भेजा था। एक पुरुष जिसका नाम रखा गया बिदू एवं दूसरी स्त्री जिसका नाम रखा गया चांदान। बिदू का जन्म बाहागढ़ में हुआ, जो घनघोर जंगलों के बीच था। वही चांदान का जन्म चायगाड़ के मांझी बाबा के घर हुआ था। एक दिन बिदू घूमते-घूमते चायगाड पहुंचा तथा उन लोगों के सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल हुआ। सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होने के दौरान बिदू एवं चांदान के बीच प्रेम हो गया। इन दोनों का प्रेम प्रसंग चायगाड के लोगों एवं चांदान के पिता को पसंद नहीं था। इस कारण चायगाड के लोग बिदू की पिटाई करने लगे। बिदू इसी तरह उन लोगों के चंगुल से जंगल की ओर भागा। चायगाड के लोगों ने उसका पीछा किया, परंतु वह नहीं दिखा। इन लोगों ने मान लिया कि वह मर चुका है। परंतु बिदू ने भागते समय पत्थरों पर अलचिकी भाषा में लिख दिया कि मैं सुरक्षित हूं। वह जानता था कि यह भाषा चांदान को छोड़कर कोई नहीं पढ़ सकता है। क्योंकि इन दोनों ने आपस में बात करने एवं अपनी बातों का आदान-प्रदान करने के लिए पत्थर पर लिखकर इस भाषा का आविष्कार किया था। चांदान ने भाषा को पढ़ लिया तथा वह समझ गई कि बिदू सुरक्षित है और कहां पर है। बाद में उन दोनों का मिलन हुआ और इस तरह आदिवासी समाज में अलचिकी लिपि की शुरुआत हुई। अल गुरु पंडित रघुनाथ मुर्मू ने इसे बढ़ाया :

पंडित रघुनाथ मुर्मू ने बिदू चांदान की पूजा करके इन दोनों के आशीर्वाद से इस भाषा को बढ़ाने का काम किया। पंडित रघुनाथ मुर्मू का जन्म पांच मई 1950 को ओडिशा के मयूरभंज जिले में हुआ था। उन्होंने अलचिकी लिपि का विस्तार कर कई किताबें लिख डाली। इनमें प्रमुख अल चेमेद, पारसी पोहा, रोनोड़, ऐलखा हिताल, बिदू चांदान, खेरबाड़ वीर शामिल हैं। उन्होंने कहा कि आलचिकी लिपि का ज्ञान सभी आदिवासी को होना चाहिए, तभी हमारा समाज संस्कृति धर्म इत्यादि के बारे में आने वाली पीढ़ी जान सकेगी। इतुम आसड़ा के माध्यम से लिपि को दिया जा रहा है बढ़ावा :

चुन्नीलाल किस्कू ने बताया कि चूंकि सभी जगह आलचिकी की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं है, इसलिए जो भी हमारे समाज के विद्यार्थी अलचिकी लिपि के बारे में जानकारी रखते हैं। वह सप्ताह में एक दिन दो घंटे गांव-गांव में घूमकर बच्चों को इस भाषा एवं लिपि में पढ़ाते हैं तथा इसकी जानकारी देते हैं। इस तरीके से पढ़ाई को हम लोगों की भाषा में इतुम आसड़ा कहते हैं।

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