जहां धरती के नीचे सौ साल से सुलग रही आग, दो सदियों में कस्बे से कॉस्मोपॉलिटन बना वह शहर
अभी-अभी हुए लोकसभा चुनाव में धनबाद के अभिन्न अंग-झरिया और इसकी भूमिगत आग चुनावी मुद्दा नहीं बन सकी। कोई भी प्रत्याशी झरिया और इसके विस्थापन में अपनी भूमिका को रेखांकित नहीं कर सका।
अभी-अभी हुए लोकसभा चुनाव में धनबाद के अभिन्न अंग-झरिया और इसकी भूमिगत आग चुनावी मुद्दा नहीं बन सकी। कोई भी प्रत्याशी झरिया और इसके विस्थापन में अपनी भूमिका को रेखांकित नहीं कर पाया। भूगर्भीय आग, सरकार के लोकलुभावन वादों और झरिया मास्टर प्लान की सुस्त चाल के बीच झरिया की खैरियत अब कितने आम चुनावों तक बनी रहेगी, यह तो भविष्य बताएगा। कभी मछुआरों का शहर रहे झरिया को विश्वप्रसिद्ध कोयला मंडी बनने तक के सफर को पूरा करने में दो सदी से ज्यादा समय लगे।
झरिया जैसे कस्बे को कॉस्मोपॉलिटन (बहुउद्देशीय) नगर बनने में कम से कम 250 वर्ष तो जरूर लगे हैं। यह दीगर बात है कि कभी कोयला उद्योग का अत्यन्त प्रसिद्ध नगर रहा आज 'उपेक्षित' विशेषण से अभिहित किया जा रहा है। झरिया शहर के बाशिंदे आज बुनियादी समस्याओं के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।
झरिया दो-तीन सौ साल पहले, मानभूम जिले (बंगाल) का एक छोटा सा कस्बा था। जंगल-झाड़, उबड़-खाबड़ धरती, जहां-तहां गड्ढे, तालाब, घास-फूस की झोपडिय़ां, यही इसका भौगोलिक रूप था। हां, झारखंड के इस क्षेत्र में स्वर्णरेखा और और दामोदर नदी के किनारे कुछ गांव-टोले बसे थे, जिनके ऐतिहासिक अवशेष-दालमी, तेलकुप्पी, पकबीरा, पटकुम नामक स्थानों पर पाए गए हैं। प्राचीन इतिहास के शोधकारों ने ईसापूर्व 500-600 वर्ष तक का विवरण प्रस्तुत किया है। मगध साम्राज्य का आधिपत्य ताम्रलिप्त (आज का जिला तामलुक) तक था। अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से पूरब में बंगाल और पश्चिम में वाराणसी तक उनका राजपाट चलता था। आवागमन के लिए एक राजमार्ग बनाया गया था। वह तामलुक से, रघुनाथपुर, तेलकुप्पी और झरिया के पश्चिमी-दक्षिणी इलाके से गुजरता था। मार्ग में बोरम, बलरामपुर, छर्रा, पारा और कतरास नामक कस्बा पड़ता था। बनारस तक का राजमार्ग बाद में शेरशाह सूरी मार्ग (जीटी रोड) से तोपचांची के पास जाकर मिलता था।
आधुनिक भारत का प्रथम राजमार्ग, जो पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश के पेशावर से, कलकत्ते को जोड़ता था- झरिया से बरास्ते धनबाद, गोविंदपुर में आकर मिलता था। 1589-90 के आसपास मुगल सम्राट अकबर के सेनापति राजा मान सिंह ने झारखंड के इस इलाके का दौरा किया था, लेकिन, उन्होंने भागलपुर से चलकर बर्दमान के पास, इस राजमार्ग पर कदम रखा था और मिदनापुर होते हुए पंचेत-ओडि़शा की यात्रा की थी। उनके विजय-पथ पर मानबाजार (पुरूलिया के निकट) और बड़ा मानभूमि (जिसके अंश से मानभूमि जिला बना) आदि उस समय के प्रमाण हैं। प्रसिद्ध ऐतिहासिक दस्तावेज 'शाहनामा' में पंचेत के जमींदार वीर नारायण सिंह का उल्लेख आया है। उनका शासनकाल 1632 से 1700 के आसपास तक माना गया है। प्रारंभिक काल में उनके पास 300 घोड़ों से युक्त एक सेना थी और मुगल दरबार में स्वयं पहुंचकर अपना पेशकश (टैक्स) चुकाने के योग्य माने गए थे।
1728 से 1743 तक इस क्षेत्र के राजा गरूड़ नारायण सिंह हुए और इनकी भी राजधानी पंचेत (पंचकोट के नाम से भी प्रसिद्ध) ही रही।
ब्रिटिश शासन की शुरुआत 1782-83 में हुई। ब्रिटिश सेना के मेजर क्रॉवफोर्ड ने, इस क्षेत्र के छोटे राजे-रजवाड़ों (झालदा, नवागढ़, कतरास, झरिया, पंचेत, पांड्रा, टुंडी, रामगढ़) को अपने कब्जे में कर लिया था। उस समय पंचेत के राजा रघुनाथ नारायण सिंह थे। बाद में, 1795 में पंचेत राज्य के उत्तराधिकार को लेकर एक झमेला हुआ। इसके फलस्वरूप दीवान नीलांबर मिश्र नामक व्यक्ति ने इस इस्टेट को खरीद लिया था। किंतु, जैसा प्रारंभ में बताया गया है कि झरिया एक दिन में नहीं बना, यह सच है। झरिया एक छोटा-सा कस्बा था, कुल आबादी (झरिया और आसपास को लेकर) लगभग 10 से 15 हजार थी। यदि यह कहा जाए कि आज का झरिया शहर (उत्तर में धनसार मोड़, दक्षिण में डिगवाडीह भौंरा, पूरब में मुकुंदा और पश्चिम में केदुआ-करकेन्द) केवल स्थानीय राजा, राजबाड़ी और उससे जुड़े आमला, नौकर-चाकर का शहर था - कोई अत्युक्ति नहीं होगी। पुरानी राजबाड़ी से चलने वाली पगडंडियां केवल इतनी चैड़ी थीं कि उसपर राजा का रथ (जो प्राय: आदमियों द्वारा खींचा जाता था) चल पाता था। ज्यादातर काम घोड़ों की सवारी, बैलगाड़ी और टमटम से चलता था। टमटम को एक्का भी कहा जाता था, जो संस्कृत भाषा के 'एकाश्व' का अपभ्रंश या घिसा-पिटा शब्द था। ऊपर उल्लिखित चैहदी में बंधा कस्बा झरिया, तालाबों से भरा था। उनके नाम प्राय: इस प्रकार थे - राजाबांध, रानीबांध, हेटलीबांध, मोहरीबांध, कोइरीबांध आदि। उन तालाबों में मछलियां पाई जाती थीं। मछलियों का व्यापार धीवर लोग करते थे। इसी प्रकार राजघराने की सेवा करने वाले लोगों के अलग-अलग मुहल्ले थे, जैसे आमलापाड़ा, पोद्दारपाड़ा, मिश्रापाड़ा आदि। छोटी सी पेठिया जैसी नगरी में दाल पट्टी, भूंजा पट्टी, हंडिय़ा पट्टी, सब्जी पट्टी जैसे क्षेत्र भी थे। यह आज भी हैं।
झरिया के राजा की जमींदारी बहुत बड़ी थी। पूरब में बलियापुर-निरसा तक। पश्चिम में कतरी नदी (जिसके किनारे कतरासगढ़ बसा है), उत्तर में जीटी रोड पर गोविंदपुर तक, दक्षिण में दामोदर नदी तक। पुरानी राजबाड़ी में पूजा के लिए ठाकुरबाड़ी, ऐशो-आराम की सारी सुविधाएं- नाचघर, चिडिय़ाघर आदि थे। राजघराने की महिलाएं जो प्राय: असूर्यम्पश्या (पर्दानशीं) होती थीं - आज के राजा तालाब में स्नान करने आती थीं। उनके लिए लोहे के चदरे से ढंका लंबा-चौड़ा घाट बना था। तालाब के मध्य में बना टापू और उसपर एक बड़ा हाल (जो स्तंभों पर टिका) था। उस टापू का वह हॉल आज खंडहरावस्था में है। इस टापू पर, राजपरिवार के दिवंगत लोगों का दाहसंस्कार होता था।
कोयला उत्पादक जमीन को - विभिन्न व्यापारिक पार्टियों या कंपनियों को स्व.राजा शिव प्रसाद सिंह और स्व. राजा काली प्रसाद सिंह की अमलदारी में लीज पर दिया गया या बेचा गया।
(बनखंडी मिश्र की कलम से)
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