FOR Sake of Stomatch: पढ़ने-खेलने की उम्र में परिवार चलाने का बोझ छिन रहे बच्चों की मुस्कान
पढ़ने लिखने व खेलने के उम्र में परिवार वालों के पेट पालने की जिम्मेदारी ने कई बच्चों के चेहरे से मुस्कान ही छीन गई है। कोरोना महामारी ने कई वर्ग के लोगों का हाल बेहाल कर दिया है। इसका असर सबसे ज्यादा निम्न वर्ग के लोगों
सुमित राज अरोड़ा, झरिया: पढ़ने लिखने व खेलने के उम्र में परिवार वालों के पेट पालने की जिम्मेदारी ने कई बच्चों के चेहरे से मुस्कान ही छीन गई है। कोरोना महामारी ने कई वर्ग के लोगों का हाल बेहाल कर दिया है। इसका असर सबसे ज्यादा निम्न वर्ग के लोगों में देखने को मिला। ऐसी ही कहानी झरिया के बनियाहीर के रहने वाले दस वर्ष के एक छोटे से बच्चे की है। परिवार में मां, पिता और वह बच्चा रहता है। पिता की तबियत ठीक ना होने से घर की हालात उतनी अच्छी ना होने से घर का पूरा बोझ उक्त बच्चे पर पढ़ गई है। यह काहानी बनियाहीर के रहने वाले दस वर्षीय साहिल की है। साहिल सुबह से रात तक छोटे बच्चों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए अपने चेहरे की मुस्कान को गायब कर दिया है। साहिल सुबह से रात तक गुब्बारों को फुलाकर राह चलते लोगों को मात्र दस रूपये में बेचता है। कई लोग खरीदते है तो कई लोग फटकार लगाकर भगा देते है। उसके बावजूद साहिल अपने परिवार वालों का पेट पालने के लिए सुबह से रात तक गुब्बारों को बेचते रहते है। साहिल ने कहा कि लॉक डाउन ने जीने का नजरिया ही बदल दिया। लॉक डाउन लागू होने से पहले सुबह स्कूल जाना फिर स्कूल से वापस आ कर अपने दोस्तों के साथ खेलना यही हमारी जिंदगी थी। लॉक डाउन ने छोटी सी उम्र में सब कुछ सिखा दिया। इसी बीच पिता की तबियत खराब होने से घर का सारा काम करना पढ़ता है। राेज रात को बाजार में गुब्बारे को खरीद कर सुबह उसे फुलाते है। उसके बाद उसे एक प्लास्टिक के डंडे में बांध कर उसे बाजार में बेचने चले जाते है। झरिया में ऐसे एक दर्जन बच्चे है जो राहगीरों के बच्चों के चहरे पर मुस्कान लाने के लिए अपनी मुस्कान को गायब कर चूके है। उसने बताया कि जो कमाई होती है उस पैसे से घर का राशन का सामान लाकर अपने परिवार वालों की जीविका चलाया करते है।