ये सूक्ष्म शैवाल देखते ही चट कर जाते कार्बन डाइऑक्साइड, बदले में देते ऑक्सीजन
टीम की अगुवाई कर रहे सिंफर के निदेशक वैज्ञानिक डॉ.प्रदीप कुमार सिंह बताते हैं, चीन व यूएसए के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे अधिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने वाला देश है।
धनबाद, विनय झा। विश्व भर में इन दिनों यह शोध चल रहा है कि हवा में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड गैस पर कैसे प्राकृतिक मगर सस्ती तकनीक से लगाम लगाई जाए। इस गैस को प्रदूषण व ग्लोबल वार्मिंग के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। धनबाद स्थित केंद्रीय खनन एवं ईंधन अनुसंधान संस्थान (सिंफर) के वैज्ञानिकों की टीम ने पूरे पांच साल की मेहनत के बाद इस दिशा में क्रांतिकारी कामयाबी हासिल की है। उन्होंने प्रकृति में मौजूद शैवालों की हजारों प्रजातियों में से ऐसे अति सूक्ष्म शैवालों (माइक्रो एल्गी) को तलाश कर समेकित तकनीक विकसित की है, जो कार्बन डाइऑक्साइड को देखते ही चट कर जाते हैं। ये स्वपोषी शैवाल सूर्य की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) के जरिए कार्बन डाइऑक्साइड को ऑक्सीजन में तब्दील कर देते हैं। इसकी रफ्तार ही विशेष खासियत है। यही नहीं, इस तकनीक में उपयुक्त शैवालों का बायोडीजल, बिजली उत्पादन में बॉयोफ्यूएल, पशुओं के लिए पौष्टिक चारा, विटामिन, इत्र बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तकनीक पर देश के शीर्ष केंद्रीय विज्ञान एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर) ने मुहर लगाई है। भारत सरकार ने देश के कोयला आधारित पावर प्लांटों, पेट्रोकेमिकल प्लांटों समेत तमाम उन कारखानों में इस तकनीक के इस्तेमाल का मन बनाया हैं, जहां बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड गैस उत्सर्जित होती है।
क्या है तकनीक, क्यों पड़ी जरूरत : वैज्ञानिकों की टीम की अगुवाई कर रहे सिंफर के निदेशक वैज्ञानिक डॉ.प्रदीप कुमार सिंह बताते हैं, चीन व यूएसए के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे अधिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने वाला देश है। ग्लोबल वार्मिंग पर पेरिस सम्मेलन में भारत ने वायुमंडल में इस गैस का स्तर घटाने के समझौते पर दस्तखत किया है। इस दिशा में शैवाल आधारित तकनीक बड़ा कदम साबित होने जा रहा है। पावर प्लांटों से उत्सर्जित गैसों में सीओ टू की मात्रा 13 से 15 फीसद तक होती है। सिंफर ने साफ पानी में पाए जाने जाने वाले ऐसे माइक्रो शैवालों का सफल प्रयोग किया है जो बहुत तेजी से कार्बन डाइऑक्साइड को अपना भोजन बना लेते हैं। ये न केवल बहुत तेजी से बढ़ते हैं बल्कि प्रकाश संश्लेषण की इसकी रफ्तार भी काफी तेज है। उच्च तापमान व अन्य गैसों की उपस्थिति में भी इसकी मजबूत सहनशीलता (टॉलरेंस) है। सामान्य तौर पर अभी तक कार्बन डाइऑक्साइड पर अंकुश के लिए पेड़-पौधे की परंपरागत प्राकृतिक तरीके अपनाये जाते रहे हैं। इसमें समय के साथ काफी पैसा खर्च होता है। कार्बन कैप्चर व पृथक्कीकरण की केमिकल, फिजिकल समेत अन्य तकनीकें भी महंगी हैं। पर्यावरण के लिए उल्टे नुकसान भी पहुंचाती हैं। मगर शैवाल तकनीक आश्चर्यजनक ढंग से सारे मानकों पर खरा उतरती है। यह पर्यावरण संरक्षण की तकनीक में अब तक का सबसे बड़ा बदलाव है।
सिंफर निदेशक वैज्ञानिक डॉ. प्रदीप कुमार सिंह की अगुवाई में विज्ञानियों की जिस टीम ने शैवाल वाली नायाब तकनीक विकसित की है उनमें मुख्य अनुसंधानकर्ता डॉ.(श्रीमती) वीए सेल्वी, डॉ.आशीष मुखर्जी, डॉ.टी गौरीचरण, आरसी त्रिपाठी, डॉ.आर एभिन मेस्टो, डॉ. मनीष कुमार व मो. अंसारी शामिल हैं।
देश का पहला पायलट प्रोजेक्ट कानपुर के पास पाता मेंः भारत सरकार के निर्देश पर महारत्न लोकउपक्रम गैस अथॉरिटी आफ इंडिया लिमिटेड (गेल) ने कानपुर के पास औरैया जिले के पाता स्थित अपने पेट्रोकेमिकल्स प्लांट की कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर करने का जिम्मा धनबाद के वैज्ञानिकों को सौंपा है। वहां शैवाल आधारित तकनीक का देश का यह पहला पायलट प्रोजेक्ट होगा। इस तकनीक के लिए गेल का सिंफर के साथ 73 लाख रुपये की लागत से करार हुआ है। वहां की वायु शुद्ध होने का सकारात्मक असर कानपुर व आसपास की हवा पर भी पड़ेगा।