ओल की खेती से जिदगी में घुली मिठास
अमरेंद्र प्रताप सिंह हंटरगंज(चतरा) ओल कड़वा होता है। मगर इस अंचल के बारा गांव के जन-ज
अमरेंद्र प्रताप सिंह, हंटरगंज(चतरा) : ओल कड़वा होता है। मगर इस अंचल के बारा गांव के जन-जीवन में उसके उत्पादन से मिठास घुल गई है। उसके अलावा मछली पालन और मिर्च की खेती भी वहां के किसानों को आत्मनिर्भर बनाने में कारगर साबित हुई है। करमा पंचायत के उस गांव में पचास घर मछुआरा जाति के लोगों के हैं। मछली पालन और उसकी तिजारत उनकी आजीविका का साधन था। थोड़ी बहुत जमीन थी, मगर खेती में कोई दिलचस्पी कम थी। कारण कृषि उत्पाद को बाजार में कम कीमत मिलना था। किसानों की खस्ता हालत से खेती प्रति उदासीनता कायम थी। हालांकि मछली के कारोबार से घर चलाना मुश्किल साबित हो रहा था। मछ़ुआरे मछली बिक्री के लिए इलाके के हाट-बाजार जाया करते हैं। उसी दौरान बाजार में ओल की मांग और उसके मूल्य ने उन्हें आकर्षित किया। मिर्च की भी बाजार में वही स्थिति थी। लिहाजा बतौर प्रयोग ओल और मिर्च की खेती प्रारंभ की। परिणाम अच्छा मिला। खासकर जब इधर, कोविड-19 महामारी का दौर शुरू होते ही मछली बाजार चौपट हो गया। मछुआरों के लिए पेट चलाना मुश्किल होने लगा। ऐसे में सब्जी कारोबार ही'' जिदगी की गाड़ी खिच रही थी। खासकर ओल और मिर्च की मांग के अलावा उसके मूल्य ने काफी प्रभावित किया। लिहाजा गांव में ओल और मिर्च की खेती व्यापक पैमाने पर प्रारंभ हो गई। गांव के किसान सत्यनारायण चौधरी और रामदीप चौधरी बताते हैं-ओल की खेती में महज चार-पांच माह लगते हैं। एक-एक ओल न्यूनतम पांच किलोग्राम का बैठता है। लिहाजा कम जमीन में ज्यादा उपज होती है। बाजार में तीस रुपये प्रति किलोग्राम अथवा उससे ज्यादा दर से ओल बिकता है। ऐसे में साधारण किसान भी अच्छी खासी आय कर लेता है। अब क्षेत्रीय सब्जी कारोबारी गांव में आकर सब्जी खरीदने लगे हैं। लिहाजा अब सब्जियों के परिवाहन की समस्या भी नहीं होती। इसके अलावा सब्जी मंडी के दलालों को झेलना भी नहीं पड़ता है। हालत यह कि इस खेती ने गांव में खुशहाली ला दी है। मिर्च की खेती भी अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने में मददगार साबित हो रही है। कुल मिलाकर मछली पालन के साथ ओल और मिर्च की खेती से जिदगी गाड़ी मजे से चल रही है। जहां बेरोजगारी का रोना था वहां अब खुशहाली का वास होने लगा है।